उदयपुर के पारम्परिक मेले जो आज भी आधुनिकता की चुनर ओड कर अपने वज़ूद के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर चल रहे हैं, आवश्यकता है इनके संवर्धन की।
देवाली तालाब पर महाराणा फतह सिंह जी के काल में कनाट बन्ध जो कि वर्तमान में फतह सागर पाल का निर्माण हुआ। पाल के निर्माण के साथ ही इसमें तांबे के पाईप डाले गए जो चादर चलने वाले नाले मे जाम्फल (अमरुद ) बाडी से होकर सहेलियों की बाडी तक केवल पानी के प्रेशर और साइफन विधि से बिना किसी आधुनिक ऊर्जा के चलते थे। यह 100 साल पहले भी लोगों के लिए आश्चर्य था। नए मोटर चालित फव्वारे लगने से इनकी उपयोगीता कम हो गई और अन्त में ये लुप्तप्राय होते जा रहे है।
अब लोगों के मुंह से केवल किंवदंती के रुप में यदा कदा सुनाई पड़ जाता है कि जब यह प्रोजेक्ट पुरा हुआ तो इस तकनीक और इन्जिनियरिंग की कला देखने लोग उमड़ पड़े। यह समय सावन का ही था। पहले जनसँख्या कम होने की वजह से झीलें खाली नहीं होती थी और सावन के समय सारे तलाब, नहरें, नालें लगभग पुरे भर जाते थे। तब फतहसागर पर चादर ( पाल की रपट से पानी बहकर ) चलती। लोग प्रफुल्लित हो जाते और शहर में जगह-जगह से नहरो के रुप में पानी आयड नदी में समाहित होकर आगे सफर पर निकल जाता।
जब फतहसागर पाल और सहेलियों की बाडी की जादुई कला देखने लोग उमड़ पड़े, तभी से हरियाली अमावस का मेला फतहसागर से सहेलियों की बाड़ी तक मेला लगता था जिसमें पकोड़े चाय मालपुए ,गुब्बारे ,डोलर ,लकडी- मिट्टी के बर्तन ,चुडिया, लकडी के खिलोने ,पुपाडिया ( एक हल्के गत्ते का कोण बनाकर उसमे एक गोल बाजा) जिसका शोर आधी रात तक मोहल्ले के घरों में गुंजता था। घर में खीर पुडी पकवान बनाए जाते। मेले में लोग झुले ,पकवान, फव्वारे नहर नालों का आनंद लेते।
एक खिलौना ओर होता था छोटे एप्पल जैसे बेलुन में पानी भरा रहता। यह साईकिल की पुरानी टयुब की पतले पतले कटे हुए रबड से बंधा रहता। जब आप इसको फेंकते तों रबड़ से खिंच कर वापस हाथ में आ जाता। जो मेले में जा चुके हैं ,वो लोग इसका नाम बता सकते हैं।
इससे पूर्व सावन माह में पिछोला फूल होने पर दुधतलाई से नहर से पानी समोर बाग होते हुए गुलाब बाग में नहर के द्वारा आगे निकासी देता। तब सज्जन निवास बाग ( गुलाब बाग) में बडा ही मनोरम दृश्य बनता। अतः सावन माह में मौज मस्ती के लिए सुखिया सोमवार ( सुख भरा एक दिन ) पुरे सावन माह से प्रति सोमवार लगने लगा। पहले आस पास गांव गांव से बसें भर भर कर लोग आते थे। मनोरंजन के साधन सीमित थे। अब आधुनिक गेजैट के मायाजाल और बेट्री वाले खिलोनों ने इन मेलों को महज एक औपचारिकता बना कर रख दिया है। आज भी सावन में सुखिया सोमवार सज्जन निवास बाग और हरियाली अमावस्या का मेला सहेलियों की बाड़ी में भरता है। यह भी उदयपुर की एक शताब्दी पुरानी परम्परा हैं। रुझान कम जरूर है परन्तु जिन्दा है।
सहेलियों की बाड़ी का प्रारंभिक निर्माण 1710 में हुआ। फिर इसे 1734 ईसवी के मध्य महाराणा संग्राम सिंह जी ने मुगल सम्राट फर्रूखसियर द्वारा भेंट स्वरूप प्राप्त सर केशन बालों (मुग़ल सम्राट ने भेंट स्वरुप अपने हरम से कुछ कुँवारियों को भेजा लेकिन महाराणा ने एकपत्नी व्रत के कारन सम्मान स्वरुप इन दासियो को सहेलियों की बाड़ी में रखा )के आमोद प्रमोद के लिए बनाया था। यह कुंवारिया आजीवन यहां सहेलियों की बाड़ी में ही रही और मृत्यु के पश्चात दूध तलाई पर उन्हें दफनाया गया। जहां उनकी कब्रे बनी है। यह कब्रे हैं दूध तलाई के मुख्य गेट के सामने बड़ी पाल के गेट के अंदर दाँयी ओर।
जब 1795 ईस्वी में बहुत तेज मूसलाधार बारिश और अतिवृष्टि से देवाली तालाब का बांध टूट गया जिससे स्थान नष्ट हो गया। तब महाराणा फतेह सिंह जी ने 1890 में इस बांध को वापस बनाया और इसका नाम कनॉट बांध रखा और झील का नाम फतेहसागर रखा गया। इसके बाद महाराणा फतेह सिंह जी ने 1884 के आसपास सहेलियों की बाड़ी का जीर्णोद्धार भी कराया और इसमें बाग बगीचे लगाए और इनको विस्तृत रूप प्रदान किया गया।
सहेलियों की बाड़ी के अंदर इसके मुख्य चौक में एक सुंदर पानी का होज़ बना हुआ है जिसके चारों और काले सॉपस्टोन की छतरियां लगी है। बीच में संगमरमर की एक सफेद छतरी बनी हुई है। उसके चारों ओर फव्वारे लगे हुए हैं। उन क्षत्रियों में अंगूर की बेल ने कमल पत्ते पत्थर में उत्पन्न कराए गए हैं जो मुगल शैली के बेजोड़ नमूने है। क्षत्रियों के शिखरों पर सुंदर चिड़िया बनी हुई है जो फव्वारों के साथ साथ घूमते हुए अपनी चोंच से पानी बरसाती रहती हैं। मध्य में छतरी के क्षेत्रों से फव्वारे पानी बरसाते हैं। इस दृश्य से ऐसा लगता है जैसे सावन भादो की झड़ी लगी हुई है। दीवार पर सुंदर तक्षण कला उत्तीर्ण है।
हरियाली मावस के दिन महाराणा अपने सभी दरबारियों सामंतों के साथ सहेलियों की बाड़ी के अंदर गोट (पार्टी ) और दावत का आनंद लेते थे और सारा दिन यहां गुज़ार कर बड़ी महल चले जाया करते।
इतिहासकार : जोगेन्द्र नाथ पुरोहित
शोध :दिनेश भट्ट (न्यूज़एजेंसीइंडिया.कॉम)
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