बात महाराणा फतह सिंह जी के समय की है। एक बार बोहरा समुदाय और महाजन समुदाय में किसी बात को लेकर विवाद हो गया और बात महाराणा तक पहुंच गयी। महाराणा ने दोनों पक्षों को सुना और बोहरा समुदाय की गलती मानते हुए जुर्माना किया। साथ ही महाजन समाज को नजराना अदा करने का आदेश दिया ।
फलस्वरूप जो रकम बनी उससे एक ईमारत खड़ी कर उसमें आम जन की सुविधा के लिए घड़ी लगवायी गयी। बाद में यह लेंड मार्क बना जिसे वर्तमान में भी घंटाघर के नाम से जाना जाता है। यह ईमारत नजुल सम्पत्ति की श्रेणी में आती है। सूत्रों के अनुसार इसमें लगी घड़ी ‘लन्दन’ से लाई हुई थी। घंटाघर की ऊँचाई कुछ 50 फीट के आसपास बतायी जाती है और इसके चारो तरफ चार घड़ियाँ है जो चारो दिशाओं में एक जैसा समय दिखाती है । ये शहर की पहली पब्लिक-वाच (जनता घड़ी) थी । इससे पहले उदयपुर के लोग ‘जल-घड़ियाँ’ इस्तेमाल किया करते थे, हालांकि वो ऊँचे और कुलीन वर्ग के लोगो के पास ही हुआ करती थी ।
इसकी प्रथम मंजिल पर मेवाड़ राज्य की तरफ से एक आदमी बैठता था और यहां एक आफिस चलता था जिसे 'कसौटी' कहा जाता था। कोई भी व्यक्ति उदयपुर में जेवर चाहे वो चांदी के हो या स्वर्ण के हो क्रेता और विक्रेता दोनों वहां उपस्थित होते तब वह सत्यापित किया जाता। इसी साख के कारण मेवाड़ के बाहर से दुर दुर से उदयपुर में जेवर खरीदने आते थे। कसौटी पर ठप्पा लगाया जाता था। ऐसी सुव्यवस्था पुरे भारत में कहीं नहीं थीं।
घंटाघर पर गाईड फिल्म की शूटिंग भी हुई थी। जब नायिका नायक को कहती हैं यहां सपेरों की बस्ती कहाँ है? मुझे ले चलो ! तब गाईड का अभिनय करने वाला नायक उसे यहां लाता है और एक गाना फिल्माया जाता है। आज जहां गाडियां पार्क होती हैं वहाँ बोहरा समुदाय की दुकानें थीं। यह क्षैत्र घंटाघर बोहरवाडी कहलाता था लेकिन बाद में दूकाने हटा दी गई। दुसरी मंजिल पर मेवाड़ के लोक स्थानक सगस जी वावजी का स्थान है और यहां रोज पुजा होती हैं। छट के दिन विशेष आंगी का श्रृंगार होता है। इस घड़ी के टंनकारे काफी दुर तक आज भी सुनाई देते हैं।
अब यह ऐतिहासिक इमारत पुर्ण रुप से अतिक्रमण से घिर चुकी है। पर्यटक यहां रूक कर इसे निहार नहीं सकते हैं। गाडियां की पार्किंग और सब्जी वाले सभी ने ईमारत को घेर रखा है। हर थोड़े से समय अंतराल में इसे संवारा जाता है रकम खर्च करी जाती है फिर तीन चार साल में दोबारा संरक्षण का काम किया जाता है। लेकिन हाल ढाक के तीन पात जैसे ही रहते है। ऐसी धरोहर को अतिक्रमण मुक्त बना कर इसके इतिहास को बोर्ड पर लिख कर लगाना चाहिए ताकि आने वाली पीढ़ी इन ताबिरो का महत्व जानकर गर्वित महसूस कर सके।
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