राष्ट्रीय पक्षी मोर, उदयपुर में कहीं कहीं ही बचे हैं, जिनमें से एक स्थान नीमचमाता के मंदिर के आसपास का है। मंदिर के दक्षिण में इनका बसेरा है और मंदिर के आसपास व पहुँच मार्ग पर इनको देखा जा सकता है। यहीं पर किसी ने अब सूअर भी छोड़े हैं जिनके कारण से मोर सहमे सहमें रहते हैं। मंदिर के आसपास कचरा, प्लास्टिक की थैलियाँ आदि भी बहुत हैं, जिनके बीच ये मोर विचरते हैं।
नीमचमाता मंदिर तक जाने आने के लिये सीढ़ियाँ व रेम्प है, जिससे आवाजाही अभी सीमित है और मोरों का यह कुनबा जैसे तैसे अपना गुजर बसर कर रहा है।
यहाँ पर पर्यटन विकास के लिये रोप वे प्रस्तावित है, जिसका संचालन शुरू होते ही भीड़भाड़ होगी, शोरगुल बढ़ेगा, कचोरी, समोसे, चाय आदि मिलने लगेंगी और इससे झूठन, काग़ज़, गंदगी, प्लास्टिक आदि बढ़ेगा।
एक जमाने में नीमचमाता पहाड़ी आरक्षित वन घोषित थी। मंदिर तक मात्र कच्ची पगडंडी थी और इतने कम भक्त पहुँचते थे कि रोज़ अगरबत्ती दीपक हो उसके खर्च के पैसे भी दानपेटी में इकट्ठे नहीं हो पाते थे। देवाली की एक सहकारी समिति इस खर्च की व्यवस्था करती थी। यहाँ भालू, चीते, तेंदुए, सिंयार आदि बहुतेरे थे और घना जंगल था। विद्याभवन स्कूल के ग्राउंड में कई बार चीता आ जाता था। ये सब जानवर तो विलुप्त हो चुके हैं, बचे हैं कुछ मोर तो इनकी बलि भी पर्यटन से होने वाली आय के लिये होने ही वाली है।
मेवाड़ ही नहीं विश्व की शान उदयपुर, जो अपनी झीलों, गौरवमय इतिहास और अपने समशीतोष्ण मौसम (रात और दिन के तापमान में कम अंतर व गर्मी के अधिकतम तथा सर्दी के न्यूनतम तापमान में भी कम अंतर) के लिये जाना जाता है, तेज़ी से प्रगति कर रहा है और शीघ्र ही गुड़गाँव जैसे कंक्रीट जंगल में तब्दील होने वाला है। 69-70 साल पहले जहाँ पंखे चलाने की नौबत कम ही आती थी वहाँ एयरकंडिशनर के बिना काम नहीं चलेगा यह स्थिति प्रगति, विकास और आर्थिक उन्नति दर्शाएगी जो 100-150 फुट चौड़ी सड़कों और 20-25 मंज़िल ऊँचे कॉम्प्लेक्सों के रूप में प्रदर्शित होगी। ख़ूब वाहन होंगे, बिजली की चकाचौंध होगी लेकिन कम होते जाएँगे पक्षी, पशु और जंगल । आज के युवा इसे देखेंगे लेकिन वरिष्ठ नागरिक, जिन्होंने 1959-60 का उदयपुर देखा है, वे शायद इस उपलब्धि के गवाह नहीं रहेंगे।
जी. पी. सोनी