मेवाड़ में नवरात्रि शौर्य, शक्ति, भक्ति, तपस्या ,ध्यान और साधना के रूप में उत्सव स्वरुप में मनाने की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है । मेवाड़ में नवरात्रि से दशहरा तक लगातार सैनिक बलिदान ,तपस्या और आराधना के रुप में ये पर्व मनाया जाता रहा है।
सर्वप्रथम गुलाब बाग में लोटन मंगरी पर खड्ग (तलवार) जी की स्थापना करी जाती थी। आज भी खड्ग जी का स्थान और छतरियां गुलाब बाग में लोटन मंगरी पर स्थित है। ये छतरियां उन सन्तों की है जो साधना करते करते निर्वाण प्राप्त कर गए। मठ के साधु राजमहलो से गाजे-बाजे की सवारी के साथ खड्ग जी को गुलाब बाग लेकर आते और सन्त वही हाथों में खडग जी को लेकर लगातार नौ दिन बिना हिले- डुले सभी दैनिक कार्यों पर रोक लगाकर तपस्या करतें थे।
उधर राजमहलो में सभी सैनिक एकत्रित होकर शस्त्र अभ्यास करते। घुड़सवारी, भाले और तलवार के कौशल का प्रदर्शन करते। शक्ति की उपासना के साथ राज्य चिन्ह विजय ध्वज फहराया जाता। घोड़े की जीनो की रिपेयरिंग करवायी जाती। तलवारों के धार लगवाई जाती। पुराने लश्करों की साफ सफाई की जाती जो कि दशहरे पर प्रदर्शन तैयारी का अभ्यास होता था। इसी समय जागिरदार, सैनिकों को चौकियां ट्रांसफर (अदला बदली ) की जाती। सभी सैनिक और जागिरदार मेवाड़ दरबार में मुजरा करने (उपस्थिति दर्ज़) आते और वही उन्हें नयी चौकिया सौंप दी जाती।
नवरात्री की चोथ (चौथे दिन) के दिन सभी अपने-अपने जिरहबख्तर हथियार, ढाल-भाले सहित सवारी में शामिल होते जैसे रणभूमि में जा रहे हो। इस दिन को झलका चौथ कहा जाता है और माताजी के मंदिर में बलिदान होता। भिन्न भिन्न मेवाड़ी हथियार, फौलाद के जिरहबख्तर ,लोहे के टोप, घोडो को सुरक्षा कवच और हथियार लवाजमे में होते थे। सभी सरदारों के अपने अपने निशान और रिसाले होते थे। इन दिनों बकरे और भैंसें की बली दी जाती थी।
अष्टमी पर कुलदेवी की पुजा होती थी और सातम के दिन चौगान में शस्त्र प्रदर्शन होते थे। यूँ तो दोनों हाथों से तलवार पकड़ कर बलि दी जाती पर कुछ ऐसे योद्धा भी थे जो बांये हाथ से और कुछ पांव के अंगूठे से तलवार पकड़ कर एक झटके में बकरे का सिर धड़ से अलग कर देते थे। चौगान (गांधी ग्राउंड) में चौगान्या छोड़ना अर्थ एक भैंसें को खूब सारी मदीरा पिलाकर चौगान में छोड़ देते और फिर घुड़सवार तलवार लेकर भैंसें पर वार करतें। यह रोमांचक खेल देखने जनसमूह उमड़ पड़ता था। कभी भैंसा मार लिया जाता तो कभी निर्धारित सीमा से बाहर निकल जाता तो इसे छोड़ दिया जाता था। यह खेल और भी कई ठिकानों में होता था।
नवरात्रि पर जिस खड्ग की पुजा की जाती थी उसके बारे में किवदन्ति है कि पद्मनी ने मेवाड़ के खराब समय पर जौहर किया था। इसके बाद अल्लाउद्दीन खिलजी का शासन हुआ। सती पद्मनी ने बहरी जोगन देवी का रुप धारण कर खड्ग महाराणा हम्मीर को देकर कहां कि इस खड्ग से तु मातृभूमि की बेड़ियां काट डाल। तब महाराणा हम्मीर ने युद्ध शुरू कर मेवाड़ पर पुनः अपना विजय परचम फहराया। तभी से यह खड्ग महाराणा भूपालसिह जी के काल तक लादुवास गांव के साधु खड्ग को तपस्या से सिद्ध करतें रहे है।
मेवाड़ में नवरात्रि की चतुर्थी को 'झलका चोथ' कहते हैं। इस दिन महाराणा और उमराव सरदार पुर्ण गणवेश में होकर सेना लेकर मन्दिर जाते थे । पुरे लवाजमे जिरहबख्तर के साथ लोहे के टोपे हथियार कवच आदि से सुसज्जित सवारी निकाली जाती थी।
दशहरा युद्ध प्रस्थान के लिए शुभ माना गया है। दशहरे के दिन महाराणा के चार तीर चारों दिशाओं के चार दरवाजे पर विधिवत पुजन कर रख दिए जाते अर्थात अब कभी भी युद्ध में प्रस्थान कर सकते हैं मुहूर्त की कोई आड़ नहीं है।
मेवाड़ में दशहरा एक सैनिक पर्व के रुप में मनाया जाता था। ठिकानो के सरदार, जागिरदार,उमराव और राव सभी राजधानी में एकत्रित होकर शक्ति और शौर्य का प्रदर्शन करते थे। घोड़े की लगाम दांतों से पकड़ कर खड़े होकर दोनों हाथों से तलवार घुमाते करतब दिखाना जैसे बच्चों का हंसी खेल हो। बिना जीन के घोड़े को पानी में उतारकर पार ले जाना,तीरंदाजी का कौशल बताना,बंदुक से चांदमारी करना ,कुश्तियां होती तो मिट्टी का भैंसा बना कर उस पर तलवार बाजी करी जाती और हाथियों की लड़ाई करवायी जाती।
निशानों की पुजा करी जाती थी। कुछ निशान तों राव -उमराव और जागिरदारो के होते थे और कुछ निशान जो दुश्मनों से छीने हुए होते थे। यही क्रम नक्कारो का भी होता था। यह विजय ट्राफी के रूप में पुजे जाते थे। अस्त्र शस्त्र की पुजा के साथ घोड़े की भी पुजा की जाती है।
राठौडो की कुलदेवी नागणेच्या माता, सिसोदिया की कुलदेवी बाणेशवरी माता, चौहानो की कुलदेवी आशापुरा माता, कछवाहों की कुलदेवी जमुवाय माता, झालाओ की कुलदेवी आदमाता की पुजा अर्चना की जाती है और बलिदान अर्पण किया जाता है।
एक बार जब रणबाज खां मेवाड़ के परगनो पर कब्जा करने आया तब देवगढ़ के रावत संग्राम सिंह जी ने तीरों की बौछार कर रणबाज खां मेवाती को मारकर उसका हुसैनी निशान छीन लिया और विजय ट्राफी के रुप में इसे अपने पास रख लिया।
मेवाड़ी परम्परा के अनुसार एक बहुत विशाल दरी खाना (हाल ) होता जिसे दशरावा की बैठक कहा जाता था। समस्त ठिकाने इस दरीखाने में उपस्थित होना अपना गौरव मानते थे। यह वर्ष भर का सबसे बड़ा दरीखाना होता था। चौकियां (ट्रांसफर ) होते थे। सभी सरदार दशरावा का मुजरा (सलामी ) करने उपस्थित होते। दरीखाना परम्परा के बाद सीख नजराने होते जिसमे सर्वप्रथम महाराणा सरदारों को गिफ्ट और उपहार देते फिर बाद में सरदार और ठिकानेदार भी महाराणा को बधाइयाँ और उपहार देते थे।
दशहरे पर मेवाड़ में रामलीला की परम्परा कभी नहीं रही। इस दिन महाराणा अपने लाव-लश्कर और पुरे लवाजमे के साथ सवारी पर सवार होकर खेजड़ी वृक्ष का पूजन करने जाते। खेजड़ी वृक्ष अनेक अकालों का मुकाबला करने के बाद भी हरा रहता है. वृक्ष की पत्तियां पशुधन के लिए लाभदायक होती है। गायों के आहार में यह जरूरी है। इसकी फली सांगरी की सब्जी पौष्टिक और स्वादिष्ट बनती है। खेजड़ी वृक्ष में लक्ष्मी जी का वास होता है। इसलिए मेंवाड में दशरावा पर खेजड़ी पुजन को खास महत्व दिया हैं। जब राजा स्वयं जिस वृक्ष का पूजन करता हो तो प्रजा के लिए भी वह पुजनीय है (यह पर्यावरण संरक्षण का अनुपम आदर्श था)
दशहरे का दरबार बड़ा जबरदस्त तरीके जमाया जाता था। सामंतों की अनुपस्थिति कई तरह के संदेह पैदा कर दिया करती थी। दशहरे के दरबार में सभी की उपस्थिति अनिवार्य थी। महाराणा किसी भी सामंत सरदारो में से किसी को भी तीन- तीन महीने या कभी छः महीने तक चाकरी में लगा सकते थे और यह अनिवार्य पद्धति थी। किसी भी सामंत सरदारों को युद्ध स्थल पर महाराणा भेज सकते थे। अतः लगभग लगभग सारे सरदारो की उपस्थिति अनिवार्य थी। यह मेवाड़ में राजशासन प्रणाली का अभिन्न अंग था।
कभी कभी जागिरदार मुजरा कर रुखसत होने की इजाजत मांगते और अपनी निष्ठा प्रकट करते और तलवार महाराणा के समक्ष पेश करते। तब महाराणा उन्हें कुमकुम का तिलक लगा विदा करते। ऐसे ही एक बार देलवाड़ा के राजराणा ने दशहरे पर मुजरा ( दस्तुर ) करने के बाद ठिकाने पर जाने के लिए इजाजत मांगी। महाराणा किसी कारण उन्हें रोकना चाहते थें। महाराणा के पुनः कहने पर उन्होंने बलि चढाने की बात कही। इस पर महाराणा बोले कि क्या बलि चढ़ानी हैं ? बली चढ़ानी हैं ? तो क्या हाथी की बलि चढ़ाओगे ?
तब राज राणा ने कहा विचार तो ऐसा ही हैं और रुखसती लेने के बाद ठिकाने पर जाकर राठासन माताजी (देलवाड़ा के नज़दीक ) में जाकर हाथी की बली चढा दी। इसी दिन के बाद से मेवाड़ी गीतों और दोहों में ज़िक्र आता है।
बाई उदियापुर रो राजा ,
थारे मंदिरियो चुणावे,
घाटी री नरसिंह दुरगा।
बाई देलवाड़ा रो राजा,
थारे हसतीडो चढ़ावे,
ओ बाई मावर ऊबो रोवे,
ए घाटी री नरसिंह दुरगा।
अर्थ
उदयपुर के राजा ने तुम्हारे लिए मन्दिर चुनवाया ।
देलवाड़ा के राजा ने तेरे हाथी की बली चढ़ाई।महावत खड़ा खड़ा रो रहा है ।
इतिहासकार : जोगेन्द्र नाथ पुरोहित
शोध :दिनेश भट्ट (न्यूज़एजेंसीइंडिया.कॉम)