अम्बामाता मंदिर का निर्माण 1664 ईस्वी में महाराणा राजसिंह ने करवाया था। मेवाड़ के महाराणा आश्विन शुक्ल द्वितीया के दिन अम्बामाता मंदिर में पधारते थे और बकरे भैंसे आदि की बलि दिया करते थे। साथ ही चैती नवरात्री पर भी बलिदान की रस्म होती थी।अम्बामाता मंदिरनिर्माण की कहानी भी कम रोचक नहीं है।
महाराणा राजसिंह (1652-1680) गंभीर रूप से आंखों की परेशानी से पीड़ित थे और यहां तक कि राज वैद्य द्वारा किए गए प्रयास भी उन्हें ठीक नहीं कर पाए। फिर उन्हें राजस्थान गुजरात सीमा के अरबुदांचा पहाड़ियों में अंबिका माता मंदिर (उस समय दांता राज्य में आरास की अम्बा देवी ) की बोलमा (मंशा) करने की राय दी गयी। बोलमा करते ही अगले दो दिनों में जब महाराणा की नेत्र पीड़ा सही हो गयी तो महाराणा ने सबसे पहले अरबुदांचा पहाड़ियों में अंबिका माता मंदिर में जाकर दर्शन किये और उदयपुर वापिस आकर माताजी की भक्ति में एक मंदिर का निर्माण शुरू किया। मंदिर विक्रम संवत 1721 (1664 ई.) में पूरा हुआ था।
आज भी कई व्यक्ति नेत्र पीड़ा होने पर माता के मंदिर के जल से आँखों को आंजने पर नेत्र पीड़ा सही करने आते है। यहाँ अखंड ज्योति भी सैकड़ो सालों से जलती आ रही है जिसका काजल भी नेत्र पीड़ा सही करता है।
इसके अलावा कोई भी मंदिर में कई मुर्गों को देख सकता है। ये मुर्गे यहां के लोगों द्वारा छोड़े जाते है। आमतौर पर इन जानवरों का उपयोग दैवीय बलिदान (बाली) के लिए किया जाता है, लेकिन यहां ऐसा नहीं होता है। जानवरों को नहीं मारा जाता है बजाय लोग उन्हें मंदिर में छोड़ देते हैं जब उनकी इच्छा देवी द्वारा पूरी की जाती है। ये मुर्ग़े अपने जीवन के शेष समय के लिए यहां रहते हैं।
इतिहासकार : जोगेन्द्र राजपुरोहित
शोध :दिनेश भट्ट (न्यूज़एजेंसीइंडिया.कॉम)
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