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उदयपुर : वारि समाज ,वारियों की घाटी और मेवाड़ !
मेवाड़ में पुरातन समय से पत्तल दुने में खाना खाने का रिवाज चलता चला आया है।जैसे आज भी दक्षिण भारत में कैले के पत्तों पर भोजन का रसास्वादन करते हैं वैसे आज भी मेवाड़ के कई लोग पत्तल दुने का उपयोग छोटे बड़े खानों में यदा कदा करते रहते है। k
इन पत्तलों मे लगने वाले पत्ते मेवाड़ की स्थानीय वनस्पति है। यह पत्ते विल्व पत्र के समान तीन तीन के जोड़े में होते हैं। इन पत्तों को ढाक,
खाखरा और पलाश के नाम से भी जाना जाता है।
एक समय महाराणा प्रताप ने जब वैभव त्याग की प्रतिज्ञा की कि अब मैं स्वर्ण- रजत आदि किसी पात्र में भोजन नहीं करूंगा ,जब तक कि मेवाड़ भुमि को स्वतन्त्र नहीं करा लुंगा। यह पत्तल दोने उस समय प्रकाश में आए। इनका प्रचलन बढ़ने लगा और कारण रहा कि महाराणा क़ी प्रजा और महाराणा के अनुयायि , सभी ने इस प्रतिज्ञा का समर्थन किया।
तब राजपुताने की वनस्पती खाखरा प्रचलन में आया। एक जाति जो वर्तमान में वारि समाज के नाम से अपने पैतृक मोहल्ले में निवासरत है जो कि इन्ही के नाम से अर्थात वारियो कि घाटी नाम से मशहूर है ,ने पत्तों को एकत्रित कर पत्तल बना कर आपूर्ति शुरू करी। आज भी वारियो की घाटी पर महिलाएं पुरूष पत्तल दोने बनाते हुए मिल जायेंगे। पर इस लधु उद्योग की विरासत सरकार की अनदेखी से अन्त की ओर जा रही है। अब लोगों का रेडिमेड पत्तल दोने की तरफ रूझान बेरोजगारी को बढ़ावा दे रहा है।
मेवाड़ की मोजडी ,लकड़ी के खिलौने और दर्जी द्वारा सिले कपड़े जैसे प्राचीन उध्योग सम्वर्द्धन के अभाव में रेडिमेड की भेंट पहले ही चढ गए है।
ये पाक कला में अत्यन्त सिद्ध हस्त होते हैं। इसी कारण से इन्हें राजमहलो के पास बसाया गया। जहां आज भी वारि समाज के वंशज निवास करते हैं। कुछ आज भी पुश्तैनी परम्परा का निर्वाह कर रहे हैं।
मेहमान नवाजी में खाने का महत्व सर्वोपरी है अतः जब राजमहलो में कोई भोज होता तब पुछ होती आज कण्डौ वारो है मतलब आज किसका टर्न अर्थ किसकी वारि है तो ये लोग वारि नाम से प्रसिद्ध हुए। महाराणा के काल में ये रसोड़े (रसोईं) पर नियुक्त हुए। शाकाहारी मांसाहारी दोनों प्रकार का भोजन ये बनाने मे सिद्ध हस्त थे। बाकी समाज के अन्य लोगों ने रोजगार के लिए पत्तल दोने का उद्योग किया और आपूर्ति करी।
इन प्राकृतिक पत्तों पर भोजन का स्वाद दुगना हो जाता है। यह शुद्ध प्राकृतिक होने से पशुओं या गन्दगी दोनों से परे है। ये पत्ते मानव के लिए लाभकारी भी है। गर्भवती स्त्रियों को पत्तों को दुध मे फेंटकर भी दिया जाता हैं और भी कई औषधीय गुण इसमें होते हैं। वारि समाज आज भी परम्परा को जीवित रखतें हुए संघर्ष कर रहा हैं। बहुत से वैष्णव धर्म का पालन करने वाले बुजुर्ग आज भी पत्तल दोने का प्रयोग कर रहे हैं। वर्तमान में प्लास्टिक निर्मित पत्तल आने से इस पारम्परिक उधोग पर असर पड़ा है।
नगर निगम को चाहिए कि इस उद्योग को अनुदान देकर हेरिटेज वॉक में शामिल कर बोर्ड लगा कर इतिहास से लोगों तथा नई पीढ़ी को अवगत कराएं और दक्षिण भारत की तरह अपने यहां पत्तल दुने का प्रचलन बढ़ा कर काफी हद तक प्रदुषण को नियंत्रित करने का प्रयास करे ताकि परम्परा के साथ साथ लोग इसका प्रयोग करें।
इतिहासकार : जोगेन्द्र राजपुरोहित
शोध :दिनेश भट्ट (न्यूज़एजेंसीइंडिया.कॉम)
Email: erdineshbhatt@gmail.com
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