उदयपुर 15 दिसंबर 2021: उदयपुर की झीलों में खरपतवार और गंदगी सुरसा के मुँह की तरह साफ करने के बाद भी बढ़ती चली जा रही है। प्रतिमाह लाखों खर्च करने के बाद के बाद भी हालात ज्यों के त्यों ही बने हुए है और झील की मालिक नगर निगम उदयपुर कोई स्थायी प्रयास करते नजर नही आती है मानों खरपतवार निकालने का धँधा इन्हें अमर धँधा ही बनाना है।
झील प्रेमी और झील सुरक्षा व विकास समिति उदयपुर के सदस्य तेज शंकर पालीवाल ने कहा-झीलों से जलीय खरपतवार निकालने का एक अमर धंधा है जब कि जैविक विधि से जलीय खरपतवार पर नियंत्रण किया जा सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि मछलियाँ मारने पर रोक लगा कर जलीय खरपतवार खाने वालीं ग्रासकार्प मछली पीछोला और अन्य झीलों में छोडी जाय। ये ग्रासकार्प मछली अपने वजन से तीन गुना ज्यादा खरपतवार हर रोज खातीं है। मछलियाँ मार कर कमाई करने वाले अजीब-अजीब तर्क देते हैं, जब कि राजस्थान में कई जलाशयों में मछलियाँ मारने पर रोक लगा रखी है , लेकिन ये प्रयोग उदयपुर में नही किया जाता है।
इसी पर बात करते हुए उदयपुर के वरिष्ठ पर्यावरण और झील प्रेमी जी. पी. सोनी ने ग्रासकार्प मछलियां झील में छोड़े जाने को बहुत उपयोगी व सरकारी खर्च घटाने वाला कदम बताते हुए समर्थन किया है। उन्होंने कहा कि-मछली पकड़ने के ठेके बंद करने के लिये उन्होंने उच्च न्यायालय जोधपुर में एक याचिका (8179/2021) लगा रखी है। मछली (मत्स्य) विभाग ने चार बार समय माँगने के बाद इस प्रकरण में 23-11-21 को जवाब देते हुए कहा है कि पिछोला में मछली मारने के ठेके देने से औसत 22 लाख रूपये प्रति वर्ष की आय होती है ,इसलिए ठेका देना ज़रूरी है और इसका उसे क़ानूनी अधिकार है। वहीं विगत चार सालों से पिछोला का मालिक नगर निगम है ,जिसने सूचना के अधिकार के अंतर्गत यह बताया है कि खरपतवार निकालने पर औसत 88 लाख रूपये प्रति वर्ष तो केवल डीवीडिंग मशीन पर ही खर्च हो रहे है। खरपतवार परिवहन व दैनिक मज़दूरों का खर्च अलग है। यदि पर्याप्त मछलियाँ हों तो पानी स्वत: शुद्ध रहेगा व नगण्य खरपतवार पनपेगी। स्वाधीनता से पहले मछली मारने पर रोक थी और स्वाधीनता के बाद भी 1982 तक मछलियों के ठेके नहीं होते थे। तब तक खरपतवार पनपने की समस्या भी न के बराबर थी।सरकार का एक विभाग ठेके से कमाई करे और दूसरा चार पाँच गुना खर्च करें यह स्मार्ट कृत्य रोकने के लिये न्यायालय की शरण लेनी पड़े यह एक दुखद स्थिति है।