आप जब कभी खांजीपीर से गुजरते होंगे तो माछला मगरा से लगती एक ऐतिहासिक इमारत किशनपोल (कृष्ण पोल) दरवाजा सीना ताने आपको दिखायी देता होगा। इसी दरवाजे ने न जाने कितने युद्ध देखे,कितने सैनिक यहाँ काम आ गये और कितने दुश्मन यहाँ मौत के घाट उतार दिए गये। ये दरवाजा चुपचाप मेवाड़ की रखवाली करता रहा। बात महाराणा अरि सिंह के काल 1761 से 1773 के मध्य की है। मेवाड़ का बड़ा ही विकट काल चल रहा था। स्थानीय सामंत विद्रोही होते जा रहे थे। कई सामंत विद्रोही हो गए और अपनी मर्जी से विद्रोह करने लगे। अराजकता का माहौल हो गया और जगह-जगह छोटी-छोटी स्टेट से वह अपने आप एक दूसरे से लड़ने के लिए तैयार हो गए थे। प्रशासनिक व्यवस्था गड़बड़ाने लगी थी ।
कवि श्यामल दास वीर विनोद किताब में लिखते हैं, “जब महाराणा अरि सिंह द्वितीय, महाराणा राज सिंह द्वितीय के 1761 में निधन के बाद सिंहासन पर चढ़े, तो उन्होंने शुभचिंतक और वफादार और महत्वपूर्ण पोर्टफोलियो प्रधानमंत्री मेवाड़ के अमर चंद बडवा को हटाकर राज्य प्रशासन का पुनर्गठन किया और जसवंतराय पंचोली को प्रभार सौंपा। उन्होंने मेहता आगर चंद बच्छावत को भी अपना सलाहकार नियुक्त किया। उधर दूसरी और महादजी सिंधिया की सेनाओं ने विद्रोही रतन सिंह और उनके गुट की सहायता की, उज्जैन के पास शिप्रा नदी पर डेरा डाला। 1768 में मराठों के साथ लड़ाई में सलूम्बर, शाहपुरा और बनेड़ा के प्रमुख मारे गए थे। महाराणा अरि सिंह के साथ लड़ने के दौरान प्रधान मेहता अगर चंद गंभीर रूप से घायल हो गए थे। मेहता अग्र चंद और अन्य को मराठों द्वारा गिरफ्तार किया गया था। महाराणा रूपाहेली ठाकुर के आदेश पर, शिव सिंह ने कुछ आदिवासियों को भेजा, जो प्रधान अग्र चंद को बचाने में कामयाब रहे। बाकी को बाद में छोड़ दिया गया।
कवि श्यामल दास ने वीर विनोद में लिखा है, “1769 में, उज्जैन युद्ध के बाद सलूम्बर के रावत भीम सिंह ने महाराणा अरि सिंह द्वितीय को सुझाव दिया, कि पूर्व प्रधान अमर चंद बडवा को वापस बुलाया जाए और उन्हें जिम्मेदारी सौंपी जाए। । तदनुसार महाराणा अमर चंद के निवास पर गए और उन्हें प्रधान की जिम्मेदारी स्वीकार करने की पेशकश की। अमर चंद बडवा द्वारा व्यक्त की गयी बातों के बाद महाराणा ने उन्हें किसी भी हद तक मदद करने का वादा किया।
अमर चंद बडवा ने प्रधानमंत्री के रूप में जिम्मेदारी स्वीकार की और महादजी सिंधिया से प्रतिशोध के रूप में उदयपुर की किलेबंदी शुरू की। उदयपुर आकर अमरचंद बड़वा ने सबसे पहले 9 किलोमीटर लंबी शहरकोट शहर के चारों तरफ बनवायी और चार छोटे गढ़ बनवाये जिसमें इंदरगढ़ सारणेश्वरगढ़, सूरजपोल,अंबावगढ़। अमरचंद ने शहर के चारों ओर इन्द्रगढ़, सारणेश्वरगढ़, सूरजपोल तथा अम्बावगढ़ पर तौपें लगाई। बुर्ज पर 'जगतशोभा' तोप लगाई गई। अन्य बुर्जों में पुरोहितजी की हवेली के पास बुर्ज पर 'शिव प्रसन्न' तोप, अमर ओटा के पास बुर्ज पर 'कटक बिजली' तोप, हाथीपोल व सूरजपोल के पास बुर्ज पर 'जयअम्बा' और 'मस्तबाण' तोपें लगाई गई। एक ओर दरवाजा बनवाया गया जिसका नाम पूर्व में कृष्ण पोल था। यही प्राचीन नाम बाद में किशनपोल में बदल गया।
कालांतर में वहां पर जगत शोभा नामक एक तोप किशनपोल मोर्चे पर महाराज अर्जुन सिंह जी व संग्राम सीहोर उनके अधीन जमा 3000 सिपाहियों के साथ में तैनाती की। सबसे पहले उन्होंने मेवाड़ का सोना गलवा कर कम कीमत के सिक्के बनवा कर सैनिकों को पैसा पूरा दिया। इसके साथ साथ जगत शोभा नामक तोप के साथ ऊपर माछला मगरा पर जोड़ीदार दुशमन भंजक तोप (इस तोप में इतनी ताकत थी कि इसका गोला देबारी दरवाजे तक जाता था ) रखवायी गयी। इन तोपो की जुगलबन्दी 6 महीने तक सिंधिया सेना को उदयपुर में प्रवेश नहीं करने दिया। जब सिंधिया का आक्रमण हुआ ,तब जगत शोभा तो और दुश्मन भंजक तोप दोनों की जोड़ी ने चमत्कारिक रुप से दुश्मनों को छह माह तक ( सिंधिया सेना ) को गोलों की बरसात से नहला दिया ,फलस्वरूप सिंधिया सेना सन्धि को मजबुर हो गयी। हालांकि, ज्यादातर उमराव और राव उदयपुर के महत्वपूर्ण चौकियों पर तैनात किए गए थे, लेकिन मेहता अग्र चंद, कुछ उमराव के साथ महाराणा अरि सिंह के साथ में थे। करीब छह महीने तक लड़ाई चली। रतन सिंह के लिए लड़ रहे महादजी सिंधिया ने आखिरकार 21 जुलाई, 1769 को अपनी सेना के साथ युद्ध छोड़ दिया। महाराणा प्रधान अमर चंद बडवा, सलूम्बर के रावत भीम सिंह और कुराबड़ के रावत अरुण सिंह की इस सफलता पर अत्यंत प्रसन्न हुए । इस दरवाजे का बड़ा ऐतिहासिक महत्व है। वर्तमान समय में अनदेखी के चलते इतिहास प्रेमी उदयपुर वासी इस धरोहर को सहेजने से महरुम है। अगर इस दरवाजे की नींव या यहां के दरवाजे समय रहते अपनी समर्थ शक्ति का प्रदर्शन नहीं कर पाते तों उदयपुर का वर्तमान स्वरुप आप आज देख नहीं पाते।
इतिहासकार : जोगेन्द्र नाथ पुरोहित
शोध :दिनेश भट्ट (न्यूज़एजेंसीइंडिया.कॉम)
Email:erdineshbhatt@gmail.com
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