श्राद्ध विधान क्या है? श्राद्ध कर्म क्यों करें ? श्राद्ध में क्या करें और क्या न करें ?
श्रद्धया दीयते यत्रः तर्च्छाद्ध परिचक्षते ।।
अर्थात्ः- मृत पित्तरों की आत्मिक शान्ति व उनकी आत्मिक तृप्ति के लिए जो पुत्र अपने प्रिय भोज्य पदार्थ किसी विप्र आदि को श्रद्धापूर्वक भेंट करते है, ब्राह्मण को सेवन कराते है, उसी अनुष्ठान को 'श्राद्ध' कहा जाता है। यही पित्तरों की तृप्ति का एक मात्र साधना (मार्ग) है।
एक अन्य ग्रंथ 'काव्यायन स्मृति' में भी एक जगह आया है- 'श्राद्ध वा पितृयज्ञ स्यात्'
अर्थात्ः- पितृयज्ञ का ही एक अन्य नाम 'श्रद्ध' कर्म है।
जीवन से संबन्धित उपरोक्त कुछ ऐसी समस्याएं है, जिनका समुचित उत्तर दे पाना सहज रूप में संभव नही होता। ऐसे व्यक्तियों को अपने जीवन में द्वन्द्व भरा आचरण निभाना पडता है। यद्यपि इस प्रकार की प्रतिकूल घटनाओं और उन समस्याओं के 'सूत्र' कुछ उनकी जन्म कुंडलियों में देखे जा सकते है। उनके ऐसे दुःख-दुर्भाग्य के सूत्र उनके प्रारब्ध में, उनके पूर्व जीवन से संबंधित रहते है। क्योंकि किसी व्यक्ति की जन्म कुंडली में निर्मित हुई ग्रह स्थितियां एक तरह से उसके प्रार्रब्ध व पूर्व कर्मों को ही प्रकट करने का कार्य करते है। ऐसी समस्त घटनाओं व उनके संयोग के पीछे व्यक्ति के पूर्व जीवन के संचित कर्मों को ही जिम्मेदार माना जाता है। वैदिक जीवन में इसे ही 'पितृदोष' या 'पितृश्राप' के रूप में देखा गया है। जीवन से संबन्धित ऐसी समस्त समस्याओं, जीवन की ऐसी परेशानियों और पीडाओं के लिए हमारे प्राचीन ऋषि- मुनियों और ज्योतिष मर्मज्ञों ने व्यक्ति के पूर्व जीवन के संचित कर्मों, पूर्व जीवन के किसी श्राप से ग्रस्त रहने (पितृश्राप पीडित रहने) को एक प्रमुख कारण के रूप में स्वींकार किया है।
श्राद्ध कर्म क्यूँ करे ?
पार्वणं चेति विशेयं गोष्ठयां शुद्धयर्थमष्टमम् ।। कर्मागं नवम् प्रोक्तं दैविकं दशम् स्मृतम्। यात्रास्त्रेकादशं प्रोक्तं पुष्टयर्थ द्वादशं स्मृतम्।।
इन श्राद्धों को नित्य श्राद्ध, तर्पण और पंच महायज्ञ आदि के रूप में प्रतिदिन ही 'पित्तर शान्ति' के लिए सम्पन्न किया जाना चाहिए। नैमित्तिक श्राद्ध को 'एकोदिष्ट' श्राद्ध भी कहा गया है। मृत्यु के बाद एक मृतक के लिए यही श्राद्ध सम्पन्न किया जाता है। यह श्राद्ध किसी व्यक्ति के निमित्त ही सम्पन्न होता है। प्रतिवर्ष मृत्यु तिथि पर भी 'एकोदिष्ट श्राद्ध' ही सम्पन्न किया जाता है।
देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंग सहित सभी प्राणियों को एक न एक दिन मृत्यु को प्राप्त होना ही पडता है और कुछ न कुछ समय के लिए प्रेत योनि में व्ययतीत करना ही पडता है। इसके उपरान्त या तो उन मृतात्माओं को अपने कर्मों के अनुसार नरक आदि लोकों में जाकर यातनाएं सहनी पडती है या फिर कुछ समय उपरान्त वह मृतात्माएं पुनः संसार में आकर पुनर्जन्म धारण कर लेती है। इस पुनर्जन्म या प्रेत योनि के मध्य उन प्रेतात्माओं को कुछ काल तक पित्तर योनि में भी रहता पडता है। अतः मृत्यु को प्राप्त हुए पित्तरों की आत्मिक शान्ति व प्रेत योनि से मुक्ति के उद्देश्य से ही विविध श्राद्ध कर्म सम्पन्न करने पडते है। 'श्राद्ध' का वास्तविक भावार्थ ही है, 'प्रेत' या 'पित्तर' योनि को प्राप्त हुए पितृजनों की आत्मिक शान्ति के निमित्त जो कार्य सम्पन्न किए जाए व उन पितृजनों को श्रद्धापूर्वक भोज्य पदार्थ अर्पित किया जाए, वह सब 'श्राद्ध कर्म' के अन्तर्गत ही आते है। शास्त्रकारों ने मृत्यु बाद दशगात्र और षोडशी सपिण्डन तक मृतक को 'प्रेत' की संज्ञा प्रदान की है। क्योंकि इस अवधि तक मृतात्मा निरन्तर अपने पुत्रजनों के आसपास ही भटकती रहती है। सपिण्डन श्राद्ध के बाद ही उस प्रेतात्मा का भटकना बंद होता है और वह अपने अन्य पित्तरों में सम्मिलित हो पाती है।
श्राद्ध विधान
श्राद्ध विधान हमारे शास्त्रों में तीन सौ पैंसठ दिन तक चलने वाले श्राद्धों का उल्लेख हुआ है। इसके अलावा कुछ अनेक सम्प्रदायों में '96' तरह के श्राद्ध करने की परंपरा भी हजारों वर्षों तक जारी रही है। विष्णु पुराण और याज्ञवल्क्य संहिता जैसे प्राचीन ग्रंथों में पितृपूजा अर्थात् श्राद्ध कर्म पर बहुत विस्तार से प्रकाश डाला गया है। राजा और प्रजा, दोनों के लिए ही विभिन्न अवसरों पर श्राद्ध कर्म द्वारा अपने पित्तरों का प्रसन्न कर उनका आर्शीवाद लेते रहने का विधान बताया गया है। विष्णु पुराण और याज्ञवल्क्य संहिता में लिखा है कि देश में कोई महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न किया जाए या परिवार में ही कोई शुभ, मांगलिक कार्य सम्पन्न किया जाने वाला हो, तो इन सभी अवसरों पर सर्वप्रथम ब्राह्मण भोजन के रूप में पित्तरों के निमित्त श्राद्ध कर्म अवश्य सम्पन्न करना चाहिए। इससे पित्तरों का आर्शीवाद तो मिलता ही है, वह शुभ एंव मांगलिक कार्य भी निर्विघ्न सम्पन्न हो जाता है। इसके साथ ही उन शुभ कार्यों की शुभता भी सदैव बनी रहती है। उत्सव, त्यौहार व मांगलिक शुभ कार्यो के समय ही नही, बल्कि इनके अतिरिक्त परिवार में नये शिशु के आगमन या उनके नामकरण संस्कार के अवसर पर, घर में मुण्डन संस्कार, यज्ञोपवीत संस्कार आदि सम्पन्न किए जाने के अवसर जैसे सभी शुभ अवसरों पर भी पित्तरों की स्मृति स्वरूप 'श्राद्ध कर्म' सम्पन्न कर लेना प्रत्येक दम्पत्ति का आवश्यक कर्त्तव्य एंव कर्म माना गया है। इससे पित्तरों का आर्शीवाद सदैव बना रहता है। जिस दिन बच्चों की वर्षगांठ मनाई जाए या विवाह जैसा मांगलिक कार्य सम्पन्न होने जा रहा हो, घर में किसी विशिष्ट अतिथि का आगवन हो, आकाश में कोई विशेष घटना दिखाई पडे, तो भी इन सबसे पहले पितृपूजा रूप में श्राद्ध कर्म सम्पन्न कर लेना अति शुभ रहता है। इनसे पित्तर और प्रेत योनि को प्राप्ति हुई आत्माएं अशांत नहीं होती। इन अवसरों के अतिरिक्त भी जब रात और दिन बराबर हो, जिस दिन सूर्य देव उत्तरायण छोडकर दक्षिणायन अर्थात् दक्षिणायान छोडकर उत्तरायन की ओर गति कर रहे हो, जिस दिन सूर्य ग्रहण या चन्द्र ग्रहण पडे, या फिर अंतरिक्ष में कोई विशेष घटना घटित होने वाली हो, जिस दिन सूर्य किसी नयी राशि में प्रवेश कर रहे हो, ऐसे सभी अवसरों पर भी सर्वप्रथम पितृ शान्ति के निमित्त श्राद्ध कर्म सम्पन्न कर लेना अति शुभ माना गया है। श्राद्ध कर्म करने का विधान अन्य अवसरों के लिए भी बताया गया है। जैसे जब किसी व्यक्ति को कोई बुरा स्वप्न दिखाई पडे या स्वप्न के दौरान उसे कोई मृत व्यक्ति अथवा अपने मृत पिता-माता या कोई अन्य सगा-संबन्धी दिखाई दे, तो भी उन्हें पित्तरों की आत्मिक शान्ति के लिए श्राद्ध कर्म सम्पन्न कर लेना उत्तम रहता है। श्राद्ध करने का विधान कई अन्य अवसरों के लिए भी रखा गया है। जैसे जब घर में नया अनाज भरा जाए या परिवार में नया अन्न खाना शुरू किया जाए, संक्रान्ति तिथि का दिन हो शुरू हो, वर्षारम्भ में जब सूर्य आर्द्रा नक्षत्र में प्रवेश करने वाले हो, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन मास की कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि, गुरूवार, मंगलवार, रिक्ता तिथि, गजच्छाया, संवत्सर के दिन, वैशाख शुक्ल तृतीय, श्रावण मास कृष्णपक्ष की एकादशी, माघ मास की अमावस्या, कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि आदि के दिन भी श्राद्ध कर्म सम्पन्न करने की प्राचीन परंपरा व विशेष महत्वता रही है। इन सभी अवसरों पर सम्पन्न किए जाने वाले श्राद्ध कर्मों की अपनी-अपनी विशेषताएं एंव अपने-अपने महत्व माने गये है। ऐसे अवसरों पर काम्य श्राद्ध करने का विशेष महत्व माना गया है।
श्राद्ध में क्या करें ?
दिवंगत पूर्वजों की मृत्यु तिथि पर ससत्कार अपने घर या अपनी कुल देवी अथवा कुल देवता के स्थान पर, ब्रह्म देव (ब्राह्मण) को आमन्त्रित करके उन्हें सुस्वादु भोजन कराएं। भोजन कराने के बाद ब्रह्मदेव को वस्त्र, दक्षिणा आदि दान देकर उनका आर्शीवाद ग्रहण करना चाहिए। ब्राह्मण भोजन से पूर्व पितृ तर्पण और पितृ श्राद्ध कर्म सम्पन्न करने का विधान है। इस पितृ श्राद्ध में ब्राह्मण भोजन से पूर्व पांच अलग-अलग पत्तलों के ऊपर पंचबलि निकाल कर उन्हें क्रमशः गाए, कौए, कुत्ते, चीटियों और अतिथि को खिलाना चाहिए। ब्रह्म भोज में गऊग्रास भी आवश्यक रूप में निकालना चाहिए। पंचबलि के बाद अग्नि में भोज्य सामग्री, सूखे आंवले, मुनक्का आदि की तीन आहूतियां प्रदान करके अग्निदेव को भोग लगाना चाहिए। इससे अग्निदेव प्रसन्न होते है। श्राद्ध के अन्न को अग्निदेव ही सूक्ष्म रूप में पित्तरों तक पहुंचाने का माध्यम बनते है। श्राद्ध कर्म में एक हाथ से पिंडदान करें और आहुतियां प्रदान करें, जबकि तर्पण के समय अपने दोनों हाथों से जलांजलि बनाकर तर्पण करना चाहिए। तर्पण के समय अपना मुंह दक्षिण की तरफ रखे। कुश तथा काले तिल के साथ जल को दोनों हाथों में भरकर और आकाश की ओर ऊपर उठाकर जलांजलि दी जानी चाहिए। यही तर्पण है। ऐसी जलांजलि कई बार प्रदान की जाती है अर्थात् अंजलि में जल भरकर उसे बार-बार जल में गिराना चाहिए। पित्तरों का निवास आकाश तथा दिशा दक्षिण की ओर माना गया है। अतः श्राद्ध और तर्पण में पित्तरों के निमित्त सम्पूर्ण कार्य आकाश की ओर मुंह करके ही सम्पन्न किए जाने चाहिए। श्राद्ध कर्म केवल अपरान्ह काल में ही सम्पन्न करने चाहिए।
श्राद्ध में क्या न करें ?
पद्म पुराण और मनु स्मृति के अनुसार श्राद्ध सम्पन्न करते समय दिखावा, प्रदर्शन बिलकुल नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से श्राद्ध का फल नही मिलता। अतः श्राद्ध कर्म सदैव पूर्ण एकान्त स्थान या नदी तट पर बैठकर, गुप्त रूप से ही सम्पन्न कराना चाहिए। श्राद्ध के दिन घर में दही नहीं बिलोना चाहिए और न ही उस दिन घर में चक्की चलानी चाहिए। श्राद्ध के दिन अपने बाल भी नहीं काटवाने चाहिए। श्राद्ध में तीन वस्तुएं अति पवित्र मानी गई है। दुहिता पुत्र, तिपकाल (दिन का आठंवा भाग) और काले तिल। अतः श्राद्ध के समय इनका प्रयोग अवश्य करना चाहिए। श्राद्ध और पितृपूजा में 'कुश' का भी विशेष महत्व रहता है। श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान करते समय तुलसी का प्रयोग करने से पित्तर अति प्रसन्न होते है। श्राद्ध के निमित्त सन्मार्गी एंव सात्विक ब्राह्मण को ही अपने घर भोजन के लिए आमन्त्रित करना चाहिए। भोजन के समय 'पितृ सूक्त' का पाठ करना चाहिए। श्राद्ध पक्ष में पूरे पक्ष के दौरान ही अपने भोजन करने से पूर्व गौग्रास के रूप में गाय को रोटी अवश्य निकालनी चाहिए।