बात सन् 1918 मार्च महीने की है। उदयपुर शहर में यकायक चूहे मरने का सिलसिला शुरू होने लगा। उदयपुर शहर में प्लेग नामक रोग फैलना शुरू हुआ। शहरवासी शहर से पलायन करना शुरू हो गए। महाराणा ने प्लेग रोग से बचने के लिए जयसमंद चले गए। रानी जी और कवराणि कंवर जी नाहरमंगरा चली गयी। शहर में चूहों के मरने की गति तेज हो गई और अब साथ में लोग के मरने का सिलसिला शुरू हुआ। मौत ने ऐसा रौद्र रूप दिखाया कि उदयपुर की आबादी एक चौथाई रह गई।
शहर का ये हाल हो गया था कि सुबह 11: 00 बजे बाजार खुलते और दिन 2 :00 बजे तक सब बाजार बंद कर चलें जाते। हाथीपोल से राजमहल तक बमुश्किल से दस आदमी तक नहीं मिलते और शाम को तो एक भी आदमी नज़र नही आता। इस समय शहर में मात्र 2000 लोग रह गए थे। यह चौथी बार था जब उदयपुर में प्लेग नामक रोग आया पर ऐसा हाल कभी नहीं देखा गया। सुबह जिस आदमी से बात करते ,शाम को उसी क़ी अर्थी को कन्धा देकर साण्डेश्वर जी मे अंतिम संस्कार करना पड़ रहा था।
जिनके रोग से बचने के टीके लगें थे वो भी सारणेश्वर शरण (काल ग्रास ) हो गए। हाल ये हो गया कि लाशें उठाने से लोग इनकार करने लग गए। दहशत का ये हाल था कि सलूम्बर के सेठ रूप चन्द ज्योती चन्द जिनका लडका तीस बर्ष का था। सेठजी की प्लेग से जैसे ही मौत हुई
तुरन्त पता चलते ही सेठ जी लड़का पिता की लाश हवेली में छोड़ ताला लगाकर गांव चला गया। चार दिन सेठ नहीं दिखे तो सलुम्बर रावजी ने ताला तुड़वाकर देखा तो सेठ जी मरे पड़े थें। कोई भी लाश उठाने को तैयार नहीं था । जब ये तकलीफ आई तब सब सेठों ने मिलकर एक कमेटी बनाकर चन्दा इकट्ठा कर थैला गाड़ी बनवायी जिसमें मुर्दों को डाल कर जलाने के लिए ले जाया जाता।
रुपये का हाल ये था की सवा आना रुपये का एक रूपया कलदार ही मिल रहा था। सोना बेचने पर कोई लेने वाला नहीं था। सोने का भाव 35 रुपए था जिसे भी अगर कोई ले रहा था तो 28 रुपये में वो भी जेवर नहीं केवल पासा। कही भी काम के लिए नौकर मिल नहीं रहे थे। जब इतिहासकार के परदादाजी कुम्भलगढ़ गए तों बेदला राव जी ने कहलवाकर एक नौकर सफर के लिए मगवाया तो उन्होंने भी मुश्किल से एक चरवाहे को भेजा था।
उदयपुर शहर विरान हो गया था। अनाज की किल्लत हो गयी। यह प्रकोप डेढ़ महीने तक चला और स्थिति सामान्य होने में चार महीने लग गए।
शहर में शायद ही ऐसा कोई घर था जहां मौत और दहशत नहीं थीं। जनसंख्या एक दम घट गयी थी। बाहर के व्यापारी सामान समेट कर रवाना हो गए थे और लोगों ने पलायन कर दिया था। पर कुछ मेवाड़ी ऐसे भी थे जिन्हें अपना घर और धरती छोड़ना मंज़ूर नहीं था और अंत में वे उदयपुर मे रहकर मौत का इंतज़ार करने लगे।
इतिहासकार : जोगेन्द्र नाथ पुरोहित
शोध :दिनेश भट्ट (न्यूज़एजेंसीइंडिया.कॉम)
Email:erdineshbhatt@gmail.com
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