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History / मेवाड़ के राणा कुम्भा की जयंती आज, दुश्मन कांपते थे नाम से

arth-skin-and-fitness मेवाड़ के राणा कुम्भा की जयंती आज, दुश्मन कांपते थे नाम से
DINESH BHATT January 14, 2022 11:43 AM IST

राणा कुम्भा (1433-1468 ई०) का जन्म 1423 ई० में चितौडगढ़ दुर्ग में हुआ। राणा कुंभा का राज्यभिषेक 10 वर्ष की आयु में 1433 ई० में चितौडगढ़ दुर्ग में हुआ। राजस्थान में कला व स्थापत्य कला की दृष्टि से राणा कुंभा का काल स्वर्ण काल कहलाता है। राणा कुंभा को स्थापत्य कला का जनक कहते है।कुंभा के पिता का नाम मोकल व माता का नाम सौभाग्यदेवी था। राणा कुंभा को हाल गुरू (गिरी दुर्गों का स्वामी), राजगुरू (राजनीति में दक्ष), राणारासो, अभिनव भरताचार्य , नाटकराजक (कुंभा ने 4 नाटक लिखे), प्रज्ञापालक, रायरायन, मराजाधिराज, महाराणा, चापगुरू (धनुर्विद्या में पारंगत ),शैलगुरू, नरपति,परमगुरू,हिन्दू सूत्राण,दान गुरू,तोडरमल (संगीत की तीनों विधाओं में श्रेष्ठ), नंदनदीश्वर(शैव धर्म का उपासक) आदि उपाधियां प्राप्त थी।राणा कुंभा को अश्वपति, गणपति, छाप गुरू (छापामार पद्धति में कुशल) आदि सैनिक उपाधियां भी प्राप्त थी।

मेवाड़ के राणा कुम्भा व मारवाड़ के राव जोधा के बीच आवल-बावल की संधि हुई। इस संधि के द्वारा मेवाड़ व मारवाड़ की सीमा का निर्धारण किया गया तथा जोधा ने अपनी पुत्री श्रृंगारी देवी का विवाह राणा कुम्भा के पुत्र रायमल से किया। इसकी जानकारी श्रृंगारी देवी द्वारा बनाई गयी घोसुण्डी की बावड़ी (चितौडग़ढ) पर लगी प्रशस्ति से मिलता है।

राणा मोकल के पश्चात् उनके ज्येष्ठ पुत्र कुम्भा वि.सं. १४९० (ई.सं. १४३३) में चित्तौड़ के राज्य सिंहासन पर बैठे । कुम्भा राजाओं का शिरोमणि, विद्वान, दानी और महाप्रतापी था। राणा कुम्भा ने गद्दी पर बैठते ही सबसे पहले अपने पिता के हत्यारों से बदला लेने का निश्चय किया। राणा मोकल की हत्या चाचा, मेरा और महपा परमार ने की थी। वे तीनों दुर्गम पहाड़ों में जा छिपे। इनको दण्डित करने के लिए रणमल राठौड़ (मण्डर) को भेजा। रणमल ने इन विद्रोहियों पर आक्रमण किया। रणमल ने चाचा और मेरा को मार दिया, किन्तु महपा चकमा देकर भाग गया। चाचा का पुत्र और महपा ने भागकर माण्डू (मालवा) के सुलतान के यहाँ शरण ली। राणा ने अपने विद्रोहियों को सुपुर्द करने के लिए सुल्तान के पास सन्देश भेजा। सुल्तान ने उत्तर दिया कि मैं अपने शरणागत को किसी भी तरह नहीं छोड़ सकता। अतः दोनों में युद्ध की सम्भावना हो गई।

वि.सं. १४९४ (1437 ई०) में सारंगपुर के पास मालवा सुल्तान महमूद खिलजी पर राणा कुम्भा ने आक्रमण किया। सुल्तान हारकर भाग गया और माण्डू के किले में शरण ली। कुम्भा ने माण्डू पर आक्रमण किया। अन्त में सुल्तान पराजित हुआ और उसे बन्दी बनाकर चित्तौड़ ले आए। उसे कुछ समय कैद में रख कर क्षमा कर दिया। इस विजय के उपलक्ष में राणा कुम्भा ने चित्तौड़ दुर्ग में कीर्ति स्तम्भ बनवाया । विजय स्तम्भ भगवान विष्णु को समर्पित है अत: इसे विष्णु ध्वज या विष्णु स्तम्भ भी कहते है।विजय स्तम्भ के शिल्पी जैता, नापा और पुंजा थे। विजयस्तम्भ 122 फीट ऊँचा व 9 मंजिला इमारत है। इसमें 157 सीढ़ीयां है और यह राणा कुंभा के समय की सर्वाेतम कलाकृति है। विजय स्तंभ बनाने में उस समय कुल 90 लाख रूपये खर्च हुए। कर्नल टॉड ने विजय स्तंभ को कुतुब मिनार से बेहतरीन इमारत बताया है तथा फग्र्यूसन ने विजय स्तंभ की तुलना रोम के टार्जन से की है।

राणा कुम्भा ने अपने प्रबल प्रतिद्वन्द्वी मालवा के शासक हुसंगशाह को परास्त कर 1448 ई. में चित्तौड़ में एक ‘कीर्ति स्तम्भ’ की स्थापना की। स्थापत्य कला के क्षेत्र में उसकी अन्य उपलब्धियों में मेवाड़ में निर्मित 84 क़िलों में से 32 क़िले हैं, जिसे राणा कुम्भा ने बनवाया था। मध्यकालीन भारत के शासकों में राणा कुम्भा कि गिनती एक महान् शासक के रूप में होती थी।

कुंभलगढ़ दुर्ग कुंभा द्वारा अपनी पत्नी कुंभलदेवी की याद में 1443-59 ई० के बीच बनवाया गया। कुंभलगढ़ दुर्ग को कुंभलमेर दुर्ग,मछींदरपुर दुर्ग,बैरों का दुर्ग, मेवाड़ के राजाओं की शरण स्थली, कुंभपुर दुर्ग, कमल पीर दुर्ग भी कहा जाता है। कुंभलगढ़ दुर्ग में कृषि भूमि भी है। अत: कुंभलगढ़ दुर्ग को राजस्थान का आत्मनिर्भर दुर्ग कहा जाता है। कुंभलगढ़ दुर्ग में 50 हजार व्यक्ति निवास करते थे। कुंभलगढ़ दुर्ग हाथी की नाल दर्रे पर अरावली की जरगा पहाड़ी पर कुंभलगढ़ अभयारण्य में राजसमंद जिले में स्थित है। कुंभलगढ़ दुर्ग की प्राचीर भारत में सभी दुर्गों की प्राचीर से लम्बी है। इसकी प्राचीर 36 किमी० लम्बे परकोटे से घिरी है। अत: इसे भारत की मीनार भी कहते है। इसकी प्राचीर पर एक साथ चार घोड़े दौड़ाए जा सकते है। कुंभलगढ़ दुर्ग के लिए अबुल फजल ने कहा है कि ‘यह दुर्ग इतनी बुलंदी पर बना है कि नीचे से ऊपर देखने पर सिर पर रखी पगड़ी गिर जाती है।’कर्नल टॉड ने कुंभलगढ़ दुर्ग की दृढ़ता के कारण इसको ‘एट्रूस्कन’ दुर्ग की संज्ञा दी है।

1456 ई० में गुजरात के कुतुबद्दीनशाह व मालवा शासक महमूद खिलजी प्रथम के बीच कुम्भा के विरूद्ध चम्पानेर की संधि हुई। इस संधि में तय किया गया कि दोनों मेवाड़ के राणा कुंभा को मारकर मेवाड़ आपस में बांट लेंगे। लेकिन कुम्भा ने इस संधि को विफल कर दिया। कुम्भगढ़ दुर्ग में सबसे ऊँचाई पर बना एक छोटा दुर्ग कटारगढ़ है। जहाँ से पूरा मेवाड़ दिखाई देता है अत: कटारगढ़ दुर्ग को मेवाड़ की आंख कहते है। कटारगढ़ दुर्ग/मामदेव मंदिर कुम्भा का निवास स्थल था तथा इसी दुर्ग में कुम्भा के पुत्र ऊदा/उदयकरण ने कुम्भा की हत्या की।कुंभलगढ़ दुर्ग में पन्नाधाय उदयसिंह को बचा कर लाई थी तथा कुम्भगढ दुर्ग में ही 1537 ई० में उदयसिंह का राज्यभिषेक हुआ। कटारगढ़ दुर्ग (कुंभलगढ़ दुर्ग) में 9 मई 1540 ई० को महाराणा प्रताप का जन्म हुआ। हल्दीघाटी युद्ध (1576 ई०) के बाद 1578 ई० ई में महाराणा प्रताप ने कुंभलगढ़ दुर्ग को अपनी राजधानी बनाया तथा यहीं महाराणा प्रताप का 1578 ई० में दूसरा व औपचारिक राज्यभिषेक हुआ।

राणा कुंभा द्वारा रचित रसिकप्रिया (जयदेव की गीतगोविन्द पर टीका) तथा अत्रि व महेश द्वारा विजय स्तम्भ पर लिखी गयी कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति (1460) में राणा हम्मीर को विषमघाटी पंचानन (युद्ध में सिंह के समान) बताया गया है। चितौड़ का नाम धाई बा पीर की दरगाह के अभिलेख में मिलता है। राणा कुम्भा ने अचलगढ़ दुर्ग (सिरोही) का पुन:निर्माण करवाया, बंसतीगढ दुर्ग (सिरोही), भीलों से सुरक्षा हेतु भोमट दुर्ग (सिरोही) तथा मेरों के प्रभाव को रोकने के लिए बैराठ दुर्ग (बदनौर, भीलवाड़ा) का निर्माण करवाया। भोमट क्षेत्र भीलों का निवास क्षेत्र कहलाता है।

कुम्भा ने संगीतराज, संगीतसार, संगीत मीमांशा, सूढ प्रबंध व रसिकप्रिया (जयदेव की गीत गोविन्द पर टीका) आदि ग्रंथों की रचना की। कुंभा द्वारा लिखे गए संगीत ग्रंथों में सबसे बड़ा ग्रंथ संगीतराज है।कुंभा का संगीत गुरू सारंगव्यास था तथा चित्रकला गुरू हीरानंद था। हीरानंद ने 1423 ई में (राणा मोकल के समय) मेवाड़ चित्रकला शैली का सबसे बड़ा व महत्वपूर्ण ग्रंथ ‘सुपास नाहचरियम’ की रचना की।कुम्भा की पुत्री रमाबाई संगीत की विदुषी थी जिसे वागेश्वरी की उपाधि प्राप्त थी। कुम्भा का दरबारी कवि कान्हव्यास था जिसने एकलिंगनाथ माहात्मय (संस्कृत भाषा) की रचना की। एकलिंग महात्मय संगीत के स्वरों से संबंधित ग्रंथ है। जिसका प्रथम भाग राजवर्णन कुम्भा द्वारा लिखा गया है। राणा कुम्भा के समय 1439 ई० में पाली में राणकपुर के जैन मन्दिर (कुम्भलगढ अभयारण्य) में का निर्माण धरणक सेठ द्वारा करवाया गया इन मंदिरों का शिल्पी देपाक/ देपा था।रणकपुर के जैन मंदिर मथाई नदी के किनारे स्थित है। रणकपुर के जैन मन्दिरो को चौमुखा मन्दिर भी कहते है। यह मन्दिर प्रथम जैन तीर्थकर आदिनाथ (ऋषभदेव) को समर्पित है।रणकपुर के जैन मन्दिर में 1444 खम्भे है। अत: इन्हें वनों का मन्दिर या खम्भों का मन्दिर या स्तम्भों का वन भी कहते है।राणा कुम्भा द्वारा बदनौर (भीलवाड़ा) में कुशाल माता का मंदिर बनवाया गया।कुंभा ने चितौडगढ़ दुर्ग का पुन: निर्माण करवाया। कुंभा धर्म सहिष्णु शासक था। उन्होंने आबू पर जाने वाले तीर्थ यात्रियों से लिया जाने वाला कर भी समाप्त कर दिया था।

 

उपरोक्त तथ्य लोगों की जानकारी के लिए है और काल खण्ड ,तथ्य और समय की जानकारी देते यद्धपि सावधानी बरती गयी है , फिर भी किसी वाद -विवाद के लिए अधिकृत जानकारी को महत्ता दी जाए। न्यूज़एजेंसीइंडिया.कॉम किसी भी तथ्य और प्रासंगिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है

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