राजस्थान के मेवाड़ राज्य में अपनी डाक व्यवस्था थी. आपको यकीन भले नहीं हो लेकिन ये डाक व्यवस्था स्वतंत्रता के बाद भी काम करती रही। इसका नाम भी बेहद दिलचस्प था- ब्राह्मणी डाक सेवा. इसे उदयपुर के महाराणा सज्जन सिंह ने शुरू किया था।
मेवाड़ में सदैव ब्राह्मणों को सम्मान दिया जाता रहा और शुरू से इनका पद उच्च स्तरीय रहा जिसका उन्होंने ईमानदारी और कर्त्तव्य निष्ठा से योगदान दिया ।मेवाड़ के महाराणा आरम्भ से ब्राह्मणों की बातों को प्रमुखता देते आये है ।बात महाराणा फतह सिंह जी के जमाने की है जब डाकखाने प्रचलन में नहीं थे । तब मेवाड़ में डाकखाने की आवश्यकता महसूस हुई और इसके लिए महाराणा ने अपने ख़ास लोगो के साथ विचार विमर्श किया जिसमें ऐसी व्यवस्था की बात की गयी जिससे महत्वपूर्ण डाक ,गोपनीय डाक एक जगह से दुसरी जगह पहुंचाने के लिए एक ऐसी टीम की बनाई जावे जो यह कार्य सुचारू रूप से अंजाम दे सके ।
18 वीं शताब्दी में भारत में मालवा और मेवाड़ राज्यों में एक प्रचलित डाक प्रणाली मौजूद थी। इसे ब्राह्मणी डाक के रूप में जाना जाता है क्योंकि यह ब्राह्मणों द्वारा चलाया जाता था जो हिंदुओं में सबसे ऊंची जाति के रूप में थे और उन्हें उच्च सम्मान में रखा गया था। उन दिनों पत्रों को भेजने का सबसे सुरक्षित तरीका यह था कि वे किसी यात्रा करने वाले ब्राह्मण को सौंप दें। कहा जाता है कि केशुराम शर्मा नामक ब्राह्मण ने मेवाड़ राज्य और मालवा क्षेत्र में मेल भेजने की इस लोकप्रिय पद्धति का आयोजन किया था। यह पद यथोचित रूप से ब्राह्मणी डाक कहलाता था। मेवाड़ राज्य में भारत के स्वतंत्र होने के बाद भी यह डाक व्यवस्था जारी रही और सभी रियासतों का विलय हो गया।
फलस्वरूप एक जाति विशेष ब्राह्मण को इस कार्य के लिए तैयार किया गया।
ब्राह्मण नियुक्ति के निम्न कारण थे:
1 ब्राह्मण ज्ञानी पढ़ें लिखे थे ।
2 ब्राह्मण ईमानदार थे ।
3 ब्राह्मणों को लोग ससममान रास्ता देते थे ताकि डाक तुरन्त पहुंचे ।
4 ब्राह्मण को लुटने का डर नही था अतः डाक सुरक्षित सरंक्षित तरीके से पहुंच सकती थी ।
5 लोग ब्राह्मण डाकिये को जलपान की व्यवस्था कराने मे प्रसन्नता पाते थे।
इस डाक को महाराणा के काल में ब्राह्ममणि डाक कहा जाता था अतः इसके लिए इस व्यवस्था हेतु महाराणा फतहसिह जी ने शिवनारायण शर्मा को जिम्मेदारी सौंपी थी।
तब मेवाड़ का पहला डाकखाना स्थापित हुआ इसमें केवल ब्राह्मण कर्मचारी ही थे। इन कर्मचारियों को तनख्वाह दी जाती थी क्योंकि इतिहास साक्षी है कि मेवाड़ में ब्राह्मण से कोई बैगार नहीं ले सकता और यहाँ धर्म की पालना नियम है ।
स्वतंत्रता पूर्व शुरू हुई यह डाक सेवा मेवाड़ में वर्ष 1950 तक प्रभावी रही। जादूराम गौड़ (ब्राह्मण) इस डाक सेवा के प्रमुख थे और इसलिए इसका नाम “ब्राह्मणी डाक” रखा गया। वे जयपुर रियासत में खेतड़ी के रहने वाले थे। जादूराम जनता और सरकारी कार्यालयों दोनों ही से डाक एकत्र करते थे।
यह व्यवस्था पुश्तैनी तरीके से चली जिसका जनता के लिए दो भीलवाड़ी पैसे (स्थानीय मुद्रा) प्रति पत्र शुल्क था जबकि यह ब्राह्मणी डाक सरकारी कार्यालयों के लिए निशुल्क थी।
जादूराम गौड़ को वर्ष 1932 से प्रतिवर्ष 1200 रुपए सालाना दिया जाता था जब वे निजी तौर पर इस डाक सेवा को चलाते थे। उस समय मेवाड़ रियासत का सालाना बजट बारह हज़ार रुपए था।
महाराणा के काल में आवागमन के साधनों की अत्यन्त कमी थी ।घोड़े, ऊंट और बैलगाड़ी प्रचलन में थीं परन्तु इस डाकखाने की व्यवस्था देखने लायक थी जिसका नजारा लोगों के आनन्द का विषय था। इसमें ब्राह्मण डाकिया डाक का एक थैला हाथ में ,दूसरे हाथ मे लकड़ी और लकड़ी पर घंटी बंधी रहती थी। ये दौड़ते दौड़ते घंटी बजाते हुए आते लोग तुरंत उन्हें रास्ता दे देते । यह आधुनिक जमाने की रिले रैस टाईप होता था और ये ब्राह्मणी डाक 4 से 5 दिनों में मेवाड़ के एक कोने से दूसरे कोने में पहुंचा देते थे।
इसमें पत्र प्राप्त करता डाक प्राप्त होने पर 6 पाई देकर वह पत्र छुड़ा लेता था यह डाक व्यवस्था सन् 1935 तक चलती रही ।यह मेवाड़ की विधिवत डाक व्यवस्था थी और फिर जब अंग्रेजी डाकखाने कायम हुए तब यह ब्राह्मणी डाक व्यवस्था बन्द हो गई ।
मेवाड़ राज्य में महाराणा सज्जन सिंह ने काशी राम के पुत्र जादू राम को आंतरिक डाक सेवा के लिए एकाधिकार प्रदान किया। यह समझौता विक्रम संवत 1906 के जेठ सुदी दोज (ग्रेगियन कैलेंडर 24 मई, 1849 ए डी बुधवार) को हुआ था।
इस अवधि के दौरान इंपीरियल पोस्ट ऑफिस ने मेवाड़ राज्य में भी सेवा की। हालाँकि यह सभी दूरस्थ स्थानों को जोड़ता नहीं था। इसलिए, ब्राह्मणी डाक ने जल्द ही लोगो को सेवा देने में देर नहीं की। मेल को हकारस (मेल धावक), रेलवे और मोटर बस सेवा के संचालन तक ऊंट, घोड़े, बैलगाड़ी द्वारा ले जाया गया। ब्राह्मणी डाक एक सुव्यवस्थित डाक प्रणाली थी। इस सेवा के लिए एक मामूली राशि ली गई थी। दूरी के बावजूद दरें समान थीं। साधारण "पद का भुगतान" पत्र 5 तोला वजन तक का शुल्क लिया गया था।
प्रेषक द्वारा डाक का भुगतान नकद में किया जा सकता है और इस तरह के पत्रों को हिंदी में "माहुल चकुआ" (महसूल किया गया) के रूप में चिह्नित किया गया था। यह हिंदी में "MAHSULI" (महसूली) के रूप में चिह्नित किए गए अक्षरों के रिसीवर द्वारा भुगतान किया जा सकता है।
यह प्रणाली लगभग 101 वर्षों तक संचालित रही ।
ब्राह्मणी डाक के मेवाड़ राज्य में 60 दफ्तर थे। हर चिट्ठी पर ठप्पा होता था “महसूल चुका” या “महसूली” , महसूली का ठप्पा उन चिट्ठियों पर लगता था जिनका शुल्क अदा नहीं किया हो पर यह चिट्ठियां “बैरंग” नहीं मानी जाती थीं। ब्राह्मणी डाक का मुख्यालय था उदयपुर जिसमें आठ कर्मचारी काम करते थे। मेवाड़ की इस डाक व्यवस्था का ज़िक्र भारत के इम्पीरियल गजट 1908 के 26वें भाग में पृष्ठ 97-98 पर भी किया गया है ।