उदयपुर के के मीरा कन्या महाविधालय के प्रोफेसर डाक्टर चंद्रशेखर शर्मा ने एक शोध किया । इस शोध में उन्होंने पाया कि हल्दीघाटी की 18 जून 1576 की लड़ाई में महराणा प्रताप ने अकबर को हराया था। डॉ. शर्मा ने अपने रिसर्च में प्रताप की जीत के पक्ष में ताम्र पत्रों के प्रमाण जनार्दनराय नागर राजस्थान विद्यापीठ विश्वविद्यालय में जमा कराए हैं। शर्मा की खोज के अनुसार युद्ध के बाद अगले एक साल तक महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी के आस-पास के गांवों की जमीनों के पट्टे ताम्र पत्र के रूप में बांटे थे, जिन पर एकलिंगनाथ के दीवान प्रताप के हस्ताक्षर हैं। उस समय जमीनों के पट्टे जारी करने का अधिकार सिर्फ राजा को ही होता था। जो साबित करता है कि प्रताप हीं युद्ध जीते थे।
डॉ. शर्मा ने शोध किया है कि हल्दीघाटी युद्ध के बाद मुगल सेनापति मान सिंह व आसिफ खां के युद्ध हारने से अकबर नाराज हुए थे। दोनों को छह महीनें तक दरबार में नहीं आने की सजा दी गई थी। शर्मा कहते हैं कि अगर मुगल सेना जीतती तो अकबर अपने प्रिय सेनापतियों को दंडित नहीं करते। इससे साफ जाहिर है कि महाराणा ने हल्दीघाटी के युद्ध को संपूर्ण साहस के साथ जीता था।
लोगों का एक खास तबका इस सच्चे ‘इतिहास’ को बहुत पसंद कर रहा है। आइए नजर डालते हैं जून 1576 में हुए हल्दीघाटी के इस युद्ध की ऐसी बातों पर जो अब तक हमारी जानकारी में नहीं रही है। ये जानकारियां सदियों तक सार्वजनिक दायरे से बाहर थी। हल्दीघाटी का युद्ध 18 जून 1576 ई. को खमनोर एवं बलीचा गांव के मध्य तंग पहाड़ी दर्रे से आरम्भ होकर खमनोर गांव के किनारे बनास नदी के सहारे मोलेला तक कुछ घंटों तक चला था । मेवाड़ी सेनाओं ने मुग़लो के छक्के छुड़ा दिए थे । इस युद्ध मे महाराणा प्रताप के सहयोगी राणा पूंजा का सहयोग रहा । इसी युद्ध में महाराणा प्रताप के सहयोगी झाला मान, हाकिम खान,ग्वालियर नरेश राम शाह तंवर सहित देश भक्त कई सैनिक देशहित बलिदान हुए । उनका प्रसिद्ध घोड़ा चेतक भी मारा गया था।
हल्दीघाटी राजस्थान की दो पहाड़ियों के बीच एक पतली सी घाटी है। मिट्टी के हल्दी जैसे रंग के कारण इसे हल्दी घाटी कहा जाता है। इतिहास का ये युद्ध हल्दीघाटी के दर्रे से शुरू हुआ लेकिन महाराणा वहां नहीं लड़े थे, उनकी लड़ाई खमनौर में चली थी। मुगल इतिहासकार अबुल फजल ने इसे “खमनौर का युद्ध” कहा है । राणा प्रताप के चारण कवि रामा सांदू ‘झूलणा महाराणा प्रताप सिंह जी रा’ में लिखते हैं-“महाराणा प्रताप अपने अश्वारोही दल के साथ हल्दीघाटी पहुंचे, परंतु भयंकर रक्तपात खमनौर में हुआ। ”
हॉलीवुड फिल्म ‘300’ वाली थी योजना
2006 में रिलीज हुई डायरेक्टर ज़ैक श्नाइडर की हॉलीवुड फिल्म है ‘300’ । इतिहास के एक चर्चित युद्ध पर बनी इस फिल्म में राजा लियोनाइडस अपने 300 सैनिकों के साथ 1 लाख लोगों की फौज से लड़ता है। पतली सी जगह में दुश्मन एक-एक कर अंदर आता है और मारा जाता है। राणा प्रताप ने इसी तरह की योजना बनाई थी। मगर मुगलों की ओर से लड़ने आए सेनापति मानसिंह घाटी के अंदर नहीं आए। मुगल जानते थे कि घाटी के अंदर इतनी बड़ी सेना ले जाना सही नहीं रहेगा। कुछ समय सब्र करने के बाद राणा की सेना खमनौर के मैदान में पहुंच गई। इसके बाद ज़बरदस्त नरसंहार हुआ। कह सकते हैं कि 4 घंटों में 400 साल का इतिहास तय हो गया।
महाराणा प्रताप के शासनकाल में सबसे रोचक तथ्य यह है कि मुगल सम्राट अकबर बिना युद्ध के प्रताप को अपने अधीन लाना चाहता था इसलिए अकबर ने प्रताप को समझाने के लिए चार राजदूत नियुक्त किए जिसमें सर्वप्रथम सितम्बर 1572 ई. में जलाल खाँ प्रताप के खेमे में गये, इसी क्रम में मानसिंह (1573 ई. में ), भगवानदास ( सितम्बर, 1573 ई. में ) तथा राजा टोडरमल ( दिसम्बर,1573 ई. ) प्रताप को समझाने के लिए पहुँचे, लेकिन राणा प्रताप ने चारों को निराश ही किया, इस तरह राणा प्रताप ने मुगलों की अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया और हमें हल्दी घाटी का ऐतिहासिक युद्ध देखने को मिला। अल बदायुनी के अनुसार जो युद्ध का गवाह भी था, राणा की सेना में 3,000 घुड़सवारों और लगभग 400 भील धनुर्धारियों की गिनती की, जो मेरजा के प्रमुख पुंजा के नेतृत्व में थे। दोनों पक्षों के पास युद्ध के हाथी थे, लेकिन राजपूतों के पास कोई गोला-बारूद या तोपे नहीं थी। दोनों सेनाओं के बीच असमानता के कारण, राणा ने मुगलों पर एक जोरदार हमला करने का विकल्प चुना, जिससे कई लोग मारे गए। हकीम खान सूर और रामदास राठौर ने मुग़लो को भागने पर मजबूर कर दिया और जबकि राम साह तनवार और भामा शाह ने मुगलो पर कहर बरपाया, जो भागने के लिए मजबूर थे। मुल्ला काज़ी ख़ान और फतेहपुर सीकरी शेखज़ादों के कप्तान दोनों घायल हो गए, लेकिन बरहा के सैयदों ने दृढ़ता से काम किया और माधो सिंह के अग्रिम पंक्ति के लिए पर्याप्त समय दिया।
मुग़लो को खदेड़ने के बाद, राम साह तोवर ने अपने कमांडर से जुड़ने के लिए खुद को केंद्र की ओर बढ़ाया। वह जगन्नाथ कच्छवा द्वारा मारे जाने तक प्रताप सिंह की सफलतापूर्वक रक्षा में सफल रहे थे। जल्द ही मुगल सेना, माधो सिंह के आगमन से चकित हो घबरा गयी थी,और सामने अकबर की सेना से सैय्यद हाशिम के होश खट्टे हो गए । डोडिया के कबीले नेता भीम सिंह, मुगल सेनापति को अपने हाथी से मार डाला । महाराणा ने अपने हाथी जिसका नाम राम प्रसाद था ,को मैदान में लाने का आदेश दिया। अपने युद्ध के हाथियों के के साथ मेवाड़ियों ने मुग़लो को भागने पर मजबूर कर दिया। राणा प्रताप की तरफ से प्रसिद्ध ‘रामप्रसाद’ और ‘लूना’ समेत 100 हाथी थे। मुगलों के पास इनसे तीन गुना हाथी थे। मुगल सेना के सभी हाथी किसी बख्तरबंद टैंक की तरह सुरक्षित होते थे और इनकी सूंड पर धारदार खांडे बंधे होते थे। राणा प्रताप के पास चेतक समेत कुल 3,000 घोड़े थे। मुगल घोड़ों की गिनती कुल 10,000 से ऊपर थी।लेकिन एक मेवाड़ी योद्धा के सामने 5 मुग़ल थे। धीरे धीरे लड़ाई का ज्वार शिफ्ट हो रहा था और राणा प्रताप ने जल्द ही तीर और भाले से से घायल हो गए। यह महसूस करते हुए कि दिन खत्म होने वाला है और समय के साथ मेवाड़ को महाराणा प्रताप की ज्यादा जरुरत है,वीर बिंदा झाला ने अपने सेनापति से शाही छतरी अपने घोड़े पर लेकर सजा ली और मेवाड़ी मुकुट पहन खुद को राणा बताते हुए मुग़लो की सेना के हुजुम की तरफ चल पड़े। पता था उन्हें ये उनका आखरी युद्ध है। फिर भी जोश और आँखों में चमक लिए उन्होंने सैकड़ो मुगलों को अपनी तलवार का निशाना बना दिया । उनके बलिदान और 350 अन्य सैनिकों जो पीछे रह गए जो समय को खरीदने के लिए लड़े और उनके राणा और उनकी सेना के आधे भाग को मेवाड़ की रक्षा हेतु बचा लिया ।
रामदास राठौर तीन घंटे की लड़ाई के बाद मैदान पर मारे गए लोगों में से एक थे। राम साह टोनवर के तीन बेटे- सलिवाहन, बहान, और प्रताप टोनवार - मृत्यु में अपने पिता के साथ शामिल हो गए। उग्र संघर्ष में एक स्तर पर, बदायुनी ने आसफ खान से पूछा कि मैत्रीपूर्ण और दुश्मन राजपूतों के बीच अंतर कैसे किया जाए। आसफ खान ने जवाब दिया, "जिसको भी आप पसंद करते हैं, जिस तरफ भी वे मारे जा सकते हैं, उसे मार दें, यह इस्लाम के लिए एक लाभ होगा।"
1572 ईस्वी में राणा उदय सिंह की मृत्यु हो गई और थोड़े समय के बाद उत्तराधिकार की लड़ाई हुई| राणा प्रताप गोगुन्दा में मेवाड़ के शासक के रूप में सफल हुए। शीघ्र ही बाद में उन्होंने अपनी राजधानी को कुंभलगढ़ नामक एक बहुत सुरक्षित स्थान पर स्थानांतरित कर दिया। मेवाड़ को अकबर ने लगातार अधीनता स्वीकार करने के लिए उन्हीं शर्तों पर मुगलों की अधीनता में शामिल होने को कहा जो अन्य राजपूत सरदारों को पेश की गई थी। सितम्बर 1572 को राणा प्रताप के दरबार में जलाल खान कुरची अकबर के दूत बनकर आये , पर वह प्रताप को मुगलों के अधिपत्य को स्वीकार करने के लिए समझाने में नाकाम रहे और निराश होकर लौटे। अकबर के दूत राजा यार सिंह जो 1573 में भेजे गए थे वो भी वांछित परिणाम प्राप्त करने में विफल रहे। अक्टूबर 1573 में अकबर ने प्रताप को लुभाने मुगल में अग्रणी राजपूत राजा भगवंत दास कच्छवाहा प्रमुख को भेजने का एक और प्रयास किया। अकबर चाहता था कि महाराणा प्रताप अकबर के दरबार में व्यक्तिगत उपस्थिति दर्ज़ कर मित्रता का हाथ पकड़ दासता स्वीकार कर ले। व्यक्तिगत रूप से प्रस्तुत करने के लिए प्रताप की अनिच्छा भगवंत दास और अकबर के सन्देश की शर्तों को खारिज कर दिया।
अकबर राणा प्रताप की व्यक्तिगत उपस्थिति पर जोर देते थे। दूतो द्वारा किए गए असफल प्रयासो के बाद अकबर का रवैया और सख्त हो गया था और फिर फलस्वरूप मान सिंह की कमान के तहत एक शक्तिशाली सेना को राणा प्रताप को दंडित करने के लिए भेजा गया। अकबर की विशाल सेना के सामने राजपूतो ने मुग़लों के छक्के छुड़ा दिया थे और सबसे बड़ी बात यह है कि युद्ध आमने सामने लड़ा गया था। महाराणा की सेना ने मुगलों की सेना को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया था और मुगल सेना भागने लग गयी थी।
महाराणा प्रताप सिंह ने मुगलों को कईं बार युद्ध में भी हराया। 1576 के हल्दीघाटी युद्ध में 20000 राजपूतों को साथ लेकर राणा प्रताप ने मुगल सरदार राजा मानसिंह के 80000 की सेना का सामना किया। शत्रु सेना से घिर चुके महाराणा प्रताप को झाला मानसिंह ने आपने प्राण दे कर बचाया ओर महाराणा को युद्ध भूमि छोड़ने के लिए बोला। शक्ति सिंह ने अपना अश्व दे कर महाराणा को बचाया। उनके प्रिय अश्व चेतक की भी मृत्यु हुई। यह युद्ध तो केवल एक दिन चला परन्तु इसमें 17000 लोग मारे गए। यह युद्ध 18 जून 1576 ईस्वी में मेवाड़ तथा मुगलों के मध्य हुआ था। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ने वाले एकमात्र मुस्लिम सरदार थे- हकीम खाँ सूरी। इस युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व मानसिंह तथा आसफ खाँ ने किया था । इस युद्ध का आँखों देखा वर्णन अब्दुल कादिर बदायूनीं ने किया। इस युद्ध को आसफ खाँ ने अप्रत्यक्ष रूप से जेहाद की संज्ञा दी। इस युद्ध में बींदा के झालामान ने अपने प्राणों का बलिदान करके महाराणा प्रताप के जीवन की रक्षा की। वहीं ग्वालियर नरेश 'राजा रामशाह तोमर' भी अपने तीन पुत्रों 'कुँवर शालीवाहन', 'कुँवर भवानी सिंह 'कुँवर प्रताप सिंह' और पौत्र बलभद्र सिंह एवं सैकडों वीर तोमर राजपूत योद्धाओं समेत चिरनिद्रा में सो गए ।
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