महाराणा प्रताप चाहते तो हल्दी घाटी का युद्ध होने से पहले ही उसे खत्म कर सकते थे। उनका दुश्मन सेनापति मानसिंह अपने 1000 सैनिकों के साथ मेवाड़ में था और उसकी सुचना महाराणा प्रताप सहित सभी सामन्तो को मिल गयी। फिर भी महाराणा प्रताप ने दुश्मन सेनापति मानसिंह को धोखे से पकड़ना उचित नहीं समझा।
अकबर के विशाल साम्राज्य में मेवाड़ जैसे छोटे से प्रदेश का स्वतंत्र अस्तित्व उसके लिए असहनीय तो था ही लेकिन ये उसके गुरूर पर हमेशा पड़ती थप्पड़ जैसा था। महाराणा प्रताप द्वारा गुजरात मार्ग पर आए दिन शाही फौज पर हमले करते और शाही सेना हमेशा डर के साये में गुजरात जाया करती।
अकबर के 4 सन्धि प्रस्तावों को महाराणा प्रताप द्वारा ठुकरा दिया गया था। वही महाराणा प्रताप और मानसिंह के बीच अनबन पहले से चल रही थी। अकबर व्यक्तिगत रुप से महाराणा प्रताप को अपने सामने झुकता हुआ देखना चाहता था।
मैग्जीन दुर्ग -इस दुर्ग को अकबर ने 1571-72 ई. में अजमेर में बनवाया था। इसे अकबर का किला व अकबर का दौलत खाना भी कहते हैं। अकबर ने हल्दीघाटी युद्ध की रणनीति इसी दुर्ग में बनाई थी हल्दीघाटी में मुगलों की तरफ से लड़ने वाला प्रसिद्ध इतिहासकार अब्दुल कादिर बंदायूनी था । बंदायूनी ने इस युद्ध का वर्णन बिना पक्षपात के किया है।
युद्ध से पहले एक दिन बंदायूनी अकबर के कक्ष में गया और अकबर से कहा "शहंशाह, मैं जंग के बाद राजपूतों के खून से अपनी दाढ़ी रंगना चाहता हूँ , अगर आपकी इजाजत हो तो ?"बंदायूनी लिखता है "शहंशाह ने मुझे इजाजत के साथ-साथ खुशी से 56 अशर्फियाँ भी दीं। " अब्दुल कादिर बदायूंनी ने शैख अब्दुल नबी से विदा ली, तब अब्दुल नबी ने उससे कहा कि "जब दोनों फौजों में जंग हो तब मुझे भी याद रखना और मेरी तरफ से भी दुआ मांगना। ऐसे वक्त मुझे भूलना मत। "बंदायूनी ने फातिहा पढ़ा और हथियार-घोड़ा लेकर निकल पड़ा।
बंदायूनी ने इस युद्ध को "गोगुन्दा का युद्ध" कहा जबकि अबुल फजल ने इस युद्ध को "खमनौर का युद्ध" कहा है। अक्सर एक गलतफहमी है की इस युद्ध का नाम हल्दीघाटी होने से ये समझ लिया जाता है कि ये युद्ध हल्दीघाटी में ही हुआ। हल्दीघाटी में तो महाराणा प्रताप ने छापामार युद्ध लड़े थे, लेकिन हल्दीघाटी का युद्ध खमनौर में हुआ था । महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी से होकर ही खमनौर में प्रवेश किया था।
अमरकाव्य, राजप्रशस्ति और यहां तक की महाराणा प्रताप की तरफ से युद्ध में भाग लेने वाले चारण कवि रामा सांदू ने भी ये युद्ध खमनौर में ही होना लिखा है। दरअसल मानसिंह ने हल्दीघाटी में प्रवेश किया ही नहीं, क्योंकि वह जानता था कि हल्दीघाटी जैसी दुर्गम घाटी में मेवाड़ से जीतना मुमकिन नहीं। मानसिंह ने हल्दीघाटी से ठीक पहले खमनौर में ही महाराणा प्रताप का इन्तजार किया था ।खमनौर में जिस स्थान पर युद्ध हुआ, वो जगह समतल थी और रक्त तलाई के नाम से मशहूर हुई । कर्नल जेम्स टॉड ने इस युद्ध को "मेवाड़ की थर्मोपल्ली" कहा है।
महाराणा प्रताप की तरफ से इस युद्ध में जिन्दा बचने वाले चारण कवियों में प्रमुख रामा सांदू व गोरधन बोगस थे, जिन्होंने इस युद्ध का कुछ वर्णन किया है । चारण कवियों का काम लड़ना नहीं था, पर जब ये लोग युद्धभूमि में जाते थे, तो वहां भी अपने शौर्य और बलिदान से बड़ा नाम कमाते ।
मांडलगढ़ में मानसिंह 2 माह (मध्य अप्रैल से मध्य जून) तक रुका रहा।
इन्हीं 2 महिनों में हुई कुछ घटनाएँ घटित हुई जो इस तरह हैं -
महाराणा प्रताप के बहनोई शालिवाहन तोमर सबसे पहले मानसिंह के नेतृत्व में आने वाली मुगल फौज के पड़ाव की खबर लेकर महाराणा प्रताप के पास पहुंचे। महाराणा प्रताप राजा रामशाह तोमर के घर पहुंचे और सभी सामन्तों को भी वहीं बुलाकर सलाह-मशवरा किया गया। इस सभा में बड़ी सादड़ी के झाला बींदा/मानसिंह, महाराणा के मामा जालौर के मानसिंह सोनगरा, देलवाड़ा के झाला मानसिंह, राव संग्रामसिंह, सरदारगढ़ के भीमसिंह डोडिया, बिजौलिया के डूंगरसिंह पंवार, शेरखान चौहान, सेढू महमूद खां, पत्ता चुण्डावत के पुत्र कल्याण सिंह, आलम राठौड़, नंदा प्रतिहार, नाथा चौहान, हरिदास चौहान, दुर्गादास, प्रयागदास भाखरोत, कूंपा के पुत्र जयमल, मंत्री भामाशाह आदि उपस्थित थे।
राजा रामशाह तोमर ने प्रस्ताव रखा कि मुगलों से खुले में युद्ध लड़ना ठीक न रहेगा। सभी सामन्तों समेत महाराणा प्रताप ने भी इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया, क्योंकि मुगल फौज का नेतृत्व मानसिंह कर रहा था। यहां अकबर की रणनीति काम आई कि मानसिंह को सेनापति बनाने के बाद महाराणा प्रताप को सामने आना ही होगा। इस पर महाराणा प्रताप ने कहा कि क्यों न सीधे मांडलगढ़ पर ही हमला कर दिया जावे?
सभी ने ये प्रस्ताव भी स्वीकार नहीं किया। (इस सभा कि जानकारी 'राणा रासौ' ग्रन्थ से ली गई है)अबुल फजल इस घटना को कुछ इस तरह लिखता है -"मानसिंह बादशाही फौज के साथ मांडलगढ़ पहुंचा | राणा ने गुरुर में आकर बादशाही लश्कर का ख्याल न करके मानसिंह को अपना मातहत जमींदार समझते हुए मांडलगढ़ पर हमला करने का इरादा किया, पर उसके खैरख्वाहों ने उसे ऐसा करने से रोक दिया। "
महाराणा प्रताप का साथ देने के लिए राजा रामशाह तोमर के नेतृत्व में 300 तोमर वीर भी थे। इनके खर्च के लिए महाराणा प्रताप राजा रामशाह तोमर को प्रतिदिन 800 मुद्राएं प्रदान करते थे। सभी ग्रन्थों में राजा रामशाह तोमर का नाम बड़े ही आदर से लिया गया है । ये पाण्डवों के वंशज थे ।
महाराणा प्रताप ने गोगुन्दा व उसके आसपास की जमीने उजाड़ दी, फसलें खत्म कर दीं, नागरिकों को कुम्भलगढ़ व दूसरे स्थानों पर भेजकर जगह खाली करवाई, ताकि मुगल फौज को रसद वगैरह ना मिल सके व मेवाड़ के नागरिक मुगलों के अत्याचारों से बच सकें। मानसिंह अपने 1000 सैनिकों के साथ मेवाड़ के जंगलों में शिकार के लिए निकला और अनजाने में वह महाराणा प्रताप के पड़ाव के नजदीक पहुंच गया था।
एक भील गुप्तचर ने महाराणा प्रताप को इस बात की सूचना दी। महाराणा प्रताप के पास मानसिंह को पराजित करने का सुनहरा अवसर था। सभी सामन्तों ने मानसिंह पर हमला करने का प्रस्ताव रखा। पर बड़ी सादड़ी के झाला मान/बींदा ने कहा कि हम मानसिंह को धोखे से नहीं हरा सकते है,ये राजपूती मान खिलाफ बात होगी। महाराणा प्रताप ने भी झाला मान की इस बात पर सहमति जताई।
महाराणा प्रताप सेना सहित कुम्भलगढ़ से गोगुन्दा पधारे। फिर वे गोगुन्दा से रवाना हुए और खमनौर से 10 मील दक्षिण-पश्चिम में लोसिंग (ढाणा) गाँव में पहुंचे और फिर महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी दर्रे पर अपने 3000 सैनिकों को जमा किया। हल्दीघाटी दर्रे से एक बार में केवल 1-2 व्यक्ति ही जा सकते थे।