जगदीश मंदिर उदयपुर का बड़ा ही सुन्दर ,प्राचीन और विख्यात मंदिर है। आद्यात्मिक्ता के क्षेत्र में इसका अपना एक विशेष स्थान हैं। साथ ही मेवाड़ के इतिहास में भी इसका बड़ा योगदान रहा है। यह मंदिर उदयपुर में रॉयल पैलेस के समीप ही स्थित है। जगदीश मन्दिर की कुल बत्तीस सीढ़िया है।
इसे जगन्नाथ मंदिर के नाम से भी जाना जाता है । इसकी ऊंचाई 125 फीट है । यह मंदिर 50 कलात्मक खंभों पर टिका है । यहाँ से सिटी पेलेस का बारा पोल सीधा देखा जा सकता है एवं गणगौर घाट भी यहाँ से नज़दीक ही है । मंदिर में भगवान जगन्नाथ का श्रृंगार बेहद खूबसूरत होता है । शंख, घधा ,पद्म व चक्र धारी श्री जगन्नाथ जी के दर्शन कर हर कोई धन्य महसूस करता है ।
जगदीश मंदिर पुराने उदयपुर शहर के मध्य में स्थित एक विशाल मंदिर है। इस मंदिर को जगन्नाथराय का मंदिर भी कहते हैं। इसका निर्माण 1651 में पूरा हुआ था। उदयपुर के महाराणा जगत सिंह प्रथम ने इस भव्य मंदिर का निर्माण कराया था। इसके निर्माण में कुल 25 साल लगे थे।
कहा जाता है कि महाराजा जगत सिंह की जगन्नाथ पुरी के विष्णु भगवान में अखंड आस्था थी। एक दिन सपने में उन्हें विष्णु भगवान ने कहा कि वह उनका मंदिर उदयपुर में बनवाएं, वह वहीं आकर निवास करेंगे। इसी सपने के बाद इस मंदिर का निर्माण शुरू हुआ। मंदिर आधार तल से 125 फीट ऊंचाई पर है। इसका शिखर 100 फीट ऊंचा है। मंदिर में कुल 50 कलात्मक स्तंभ हैं। इस मंदिर में जो प्रतिमा स्थापित है, वह राजस्थान के डूंगरपुर के कुनबा गांव के नजदीक पश्वशरण पर्वत से लाई गई थी। गर्भ गृह में काले पत्थर की सुंदर विष्णु प्रतिमा स्थापित की गई है। इस मंदिर को जागृत मंदिर माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि साक्षात जगदीश यहां वास करते हैं। शिखर और गर्भ गृह के लिहाज से यह नागर शैली में बना मंदिर है। मंदिर परिसर में कई छोटे मंदिरों का निर्माण कराया गया है, जो पंचायतन शैली का उदाहरण है। मंदिर परिसर में एक शिलालेख भी है, जो गुहिल राजाओं के बारे में जानकारी देता है।
यह मंदिर मारू-गुजराना स्थापत्य शैली का भी उत्कृष्ट उदाहरण है। नक्काशीदार खंभे, सुंदर छत और चित्रित दीवारों के साथ यह मंदिर एक चमत्कारी वास्तुशिल्प की संरचना प्रतीत होता है। यह मंदिर एक ऊंचे विशाल चबूतरे पर निर्मित है। मंदिर के बाहरी हिस्सों में चारों तरफ अत्यन्त सुंदर नक्काशी का काम किया गया है। इसमें गजथर, अश्वथर तथा संसारथर को प्रदर्शित किया गया है।
जगदीश मंदिर के पत्थरों की कारीगरी भदेसर के पत्थरों से करी गयी है और जहाँ इन पत्थरों की गढ़ाई हुई वह आज उदयपुर में भदेसर का चौक कहलाता है ऐसा पुराने लोग कहते है। मंदिर में जहां पंक्ति पर लोग दर्शन कर के बैठ जाते थे, वहां पगल्या जी लगाए गए ताकि लोग उस पंक्ति पर नही बैठे क्योंकि जमाने से लोग अपने दर्द को दूर करने शरीर के अंग को जैसे कमर घुटनें पेट आदि को उस शिला से रगड़ते थे मान्यता है ऐसा करने से लोग दर्द से राहत पाते है। मन्दिर में जगदीश भगवान की मूर्ति काले पाषाण से बनी है जो कि कसोटी नामक पाषाण से बनी है जिसे सोनी लोग सोने को परखने के लिए करते हैं।
मन्दिर पुराने उदयपुर के सिटी पैलेस (महलों) के बाद दुसरी सबसे ऊंची चोटी पर बना है। यह बात इसके कुर्सी लैवल यानि धरातल से शिखर तक पुरानी सिटी में हर जगह से दिखता है लेकिन अब ताबड़तोड़ निर्माण से यह इमारतों के बीच छुप गया है। वर्तमान में शायद ही कोई ऐसा सैलानी होगा जो इस मंदिर से होकर न गुज़रे।
यह मन्दिर महाराणा जगत सिंह जी प्रथम ने 6 लाख रूपये लगाकर 1652 ईस्वी में बनवाया था। लेकिन औरंगजेब द्वारा नुकसान पहुंचाने पर महाराणा संग्राम सिंह ने इसे फिर दुरूस्त करवाया। मन्दिर की परिकृमा में सुर्य शक्ति गणपति शिव के चार अन्य मन्दिर है।आज भी जगदीश मन्दिर की बाहर तक्षण शैली की मुर्तियां खण्डित है। इस मन्दिर में इन्हीं महाराणा ने रत्नों का कल्पवृक्ष दान किया था।
महाराणा ने जो रत्नों का कल्प वृक्ष चढ़ाया वो स्फटीक की शिला पर था। उसके मूल में नीलम, सर पर लहसनिया हीरे थे । शाखाओं पर माणिक पत्तों की जगह मुंगा फुलों की जगह मोतीयों के गुच्छे फल रत्नों के उसके नीचे पांच शाखाएं जिसके नीचे बह्मा विष्णु शिव कामदेव की मुर्तियां थी। यह मन्दिर पंचायतन है।
इसका निर्माण गगावत पंचोली कमल के पुत्र अर्जुन की निगरानी में भंगोरा वर्तमान में भगोरा सुथार गोत्र भाणा और उसके पुत्र मुकुंद की अध्यक्षता में 13 मई 1652 बैशाखी पुर्णिमा पर भव्य प्राण प्रतिष्ठा हुई। महाराणा राजसिंह औरंगजेब की लड़ाई में औरंगजेब के सिपहसालार सादुल्ला खां और इक्का ताज खां ने इस मन्दिर को खूब हानि पहुँचायी और इसी गुस्से मे महाराणा राजसिंह ने अपने पुत्र भीम सिंह जी को गुजरात भेजा जिसने एक बडी और तीन सौ छोटी मस्जिदो को ध्वस्त कर इसका बदला लिया। राजसिंह महाराणा के काल में मन्दिर को बचाने के लिए महाराणा ने बीस माचातोड सिपाहियों को लगाया जिनका शाश्वत सत्य लड़कर मरना था वे एक एक कर बाहर आते ओर कई दुश्मनों को मारकर वीर गति पाते थे।महाराणा राज सिंह मारवाड़ के अजीत सिंह के मामा थे। एक बार मुगलों से एक राजकुमारी को बचाने के लिए और एक बार औरंगजेब द्वारा लगाए गए जजिया कर की निंदा करके राज सिंह ने औरंगजेब का कई बार विरोध किया। राणा राज सिंह को मथुरा के श्रीनाथजी की मूर्ति को संरक्षण देने के लिए भी जाना जाता है, उन्होंने इसे नाथद्वारा में रखा था। कोई अन्य हिंदू शासक अपने राज्य में श्रीनाथजी की मूर्ति लेने के लिए तैयार नहीं था क्योंकि इसका मतलब मुगल सम्राट औरंगजेब का विरोध करना होगा, जो उस समय पृथ्वी पर सबसे शक्तिशाली व्यक्ति था। राणा को अंततः अपने ही प्रमुखों द्वारा जहर दिया गया था, जिन्हें मुगल सम्राट द्वारा रिश्वत दी गई थी।
मेवाड़ महाराणा स्वरूप सिंह जी के साथ मेवाड़ की आखरी सती एक पासवान ऐंजा बाई हुई जब महाराणा की अन्तिम डोल यात्रा चली तब वह घोड़े पर सवार थी और उसने बहुत से ज़ेवर जगदीश मन्दिर में अर्पित दिये । समय समय-समय पर महाराणा की तरफ से भरपूर चढ़ावा चढ़ाया जाता रहा ।
सन 1736 में मुगल बादशाह औरंगजेब के आक्रमण के समय मंदिर का अगला हिस्सा टूट गया। इसके गजथर के कई हाथी तथा बाहरी द्वार के पास का कुछ भाग आक्रमणकारियों ने तोड़ डाला था। बाद में महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय ने फिर से मंदिर की मरम्मत कराई।
साभार :जोगेन्द्रनाथ पुरोहित,उदयपुर- इतिहासकार