मेवाड़ ने कैसे नींव डाली मुग़लिया पतन की,क्यों शिवाजी ने मेवाड़ महाराणा का किया अनुसरण !
1669 ई.में में औरंगजेब शाही फौज के साथ अजमेर पहुंचा। लेकिन लेकिन महाराणा राजसिंह व औरंगजेब के बीच फिर सुलह हुई और युद्ध को टाला गया। महाराणा राजसिंह ने "विजयकटकातु" की उपाधि धारण की।
1671 ई. में औरंगजेब की बहिन रोशन आरा का इन्तकाल हो गया। 1674 ई. महाराणा ने देबारी के दरवाजे का निर्माण करवाया। 1676 ई.में औरंगजेब के बड़े बेटे शहजादे मुहम्मद सुल्तान की मृत्यु हो जाती है। अब औरंगजेब हिन्दुस्तान भर में मन्दिरों को तुड़वाने वगैरह के नए हुक्म जारी किए देता है। 2 अप्रैल 1679 ई. में औरंगजेब ने हिन्दुस्तान में जजिया कर दोबारा लागू कर दिया।
तब गुस्से में महाराणा राजसिंह ने औरंगजेब को एक खत लिखा | यहां पूरा खत ना लिखकर मैं सिर्फ उसका थोड़ा सा वर्णन करता हूँ कि "आप अगर हमसे दोस्ती का बर्ताव करना चाहते हैं, तो जज़िया कर को खत्म कर दीजिये | आपके पूर्वज बादशाह अकबर ने जज़िया खत्म किया था | अब उसे फिर से लागू करना ठीक न होगा | यदि आप ऐसा ना कर पाये, तो हमें दुश्मनी का बर्ताव भी अच्छे से आता है। "
जज़िया के विरोध में एक खत जो वीर शिवाजी महाराज ने औरंगजेब को लिखा, उसमें महाराणा राजसिंह का जिक्र मिलता है | वीर शिवाजी ने इसमें औरंगजेब को चुनौती दी है, जो कुछ इस तरह है "हिन्दुओं को डरा-धमकाकर जज़िया वसूल न किया जावे, तो आपकी सल्तनत के लिए बेहतर होगा | आप हमसे जज़िया वसूल करने से पहले मेवाड़ के राणा राजसिंह से जज़िया वसूल करें | अगर वे देने के लिए तैयार हो जावें तब हमारे पास आइयेगा।"
मेवाड़-मारवाड़ की घटना - मारवाड़ के अजीतसिंह के संरक्षक राठौड़ दुर्गादास के नेतृत्व में राठौड़ों ने जगह-जगह शाही मुग़लीया थानों पर धावे बोले, तब औरंगजेब ने अजमेर आकर मारवाड़ के विरुद्ध सैनिक अभियान भेजे | राठौड़ दुर्गादास ने महाराणा राजसिंह को अजीतसिंह को संरक्षता प्रदान करने व सैनिक सहायता के लिए पत्र लिखा | राजपूताने में महाराणा राजसिंह के अलावा कोई शासक नहीं था, जो औरंगजेब को चुनौती दे सके, इसलिए महाराणा ने राठौड़ दुर्गादास का प्रस्ताव स्वीकार किया | महाराणा ने अजीतसिंह को 12 गाँवों समेत केलवा का पट्टा देकर मेवाड़ में सुरक्षा प्रदान की |
अब हिन्दुस्तान की स्थिति ऐसी थी कि मेवाड़-मारवाड़ में दोस्ती का बर्ताव हुआ और दोनों रियासतें मुगलों के खिलाफ हुईं।हिन्दु विरोधी कार्यों से औरंगजेब को हिन्दुस्तान में विद्रोह भी झेलने पड़ रहे थे। उधर दक्षिण में वीर छत्रपति शिवाजी के नेतृत्व में मराठा बहादुरों ने मुगलों की बखिया उधेड़ दी।
पूरे हिन्दुस्तान में बगावत का असर हुआ, पर बादशाही फौज की संख्या बहुत ज्यादा थी और इतने बड़े मुगल साम्राज्य का अन्त होना आसान काम न था। महाराणा राजसिंह व औरंगजेब के बीच वार्ता, सन्धि, उपहार वगैरह का आदान-प्रदान,खत लिखने व धमकियों का दौर समाप्त हुआ। औरंगजेब ने खुद अपनी बड़ी मुगल फौज के साथ मेवाड़ पर हमला करने के लिए कूच किया। महाराणा राजसिंह ने अपने पूर्वज महाराणा प्रताप व महाराणा अमरसिंह के लड़ने का तरीका इख्तियार किया और राजपरिवार व जरुरी फौज के साथ मेवाड़ के पहाड़ों में प्रस्थान किया।
तत्कालीन शूरवीर महाराणा राजसिंह द्वारा फौजी जमावड़ा महीनों पहले से चल रहा था। उन्हें पता था कि किस तरह जनता को सबसे पहले बचाना है।
बादशाह औरंगज़ेब ने शहज़ादे मुहम्मद आज़म, सादुल्ला खां, इक्का ताज खां और रुहुल्ला खां को उदयपुर पर हमला कर वहां के मन्दिर वगैरह तोड़ने के साथ उदयपुर को लूटने भेजा।
वो दिन आ ही गया जब मुगल फौज लड़ते हुए उदयपुर आ पहुंची, तो वहां इन्होंने पूरा उदयपुर खाली पाया।
महाराणा राजसिंह प्रजा व सेना सहित अरावली के पहाड़ों में जा चुके थे। सादुल्ला खां व इक्का ताज खां फौज समेत उदयपुर के जगदीश मंदिर के सामने पहुंचे, जो कि उदयपुर के सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में से एक था व इसको बनाने में भारी धन (उस समय के लगभग 15 लाख रूपये ) खर्च हुआ था।
इस मंदिर की रक्षा के लिए नरू बारहठ सहित कुल 20 योद्धा तैनात थे, जिसका विवरण सुनकर आप की आँखे भीग जाएँगी। जब महाराणा राजसिंह राजपरिवार व सामंतों और जनता सहित पहाड़ों में प्रस्थान कर रहे थे तब किसी सामन्त ने महाराणा के बारहठ नरू को ताना दिया कि " जिस दरवाज़े पर तुमने बहुत से दस्तूर (नेग) लिए हैं, उसको लड़ाई के वक़्त ऐसे ही कैसे छोड़ोगे ?"
नरू बारहठ साहब एक क्षण मौन के बाद हुंकारे - "जब तक नरु बारहठ के धड़ पर शीष रहेगा तब तक ठाकुर जी (जगदीश मन्दिर) की सीढ़िया कोई आतातायी नहीं चढ़ सकेगा। एकलिंग विजयते नमः"।
नरू बारहठ के अपने 20 साथी भी कहाँ मानने वाले थे और वे भी उनके साथ यहीं रुक गए।
पूरा उदयपुर ख़ाली था। घण्टाघर से हाथीपोल तक संन्नाटा। एक भी आदमी नहीं। यहाँ तक कि शहर के स्वानो तक को अनहोनी की आशंका हो गयी थी शायद। वो भी गायब थे लेकिन तोते और चिड़ियाओं की आवाज़े सुनसान मरघट जैसे सन्नाटे को यदा कदा चीर रही थी।
सबसे पहले नरु के साथियों ने शहर के सारे मंदिरों की पूजा की।कई शंख एक साथ ऐसे बजाये गए मानों सैकड़ो लोग रणभेरी बजा रहे हो। ठण्ड की इस रात में भी सभी की भुजाएँ फड़क रही थी। मौत का कोई खौंफ नहीं। आँखों में इतना तेज़ मानो सूरज की रश्मियाँ हो।
निर्देशानुसार रात सभी लोग जगदीश मंदिर आ गए।
मेवाड़ (उदयपुर) के सारे दरवाजे जैसे उदयपोल,किशनपोल,एकलिंगगढ़,ब्रह्मपोल,चांदपोल,गड़िया देवरा पोल ,हाथीपोल और दिल्ली दरवाजा बंद किये जा चुके थे। लेकिन उस रात दिवाली मनायी गयी थी मेवाड़ के हर दरवाज़े पर सैकड़ो मशालें और दीप जलायें थे नरु के साथियों ने।
मुग़ल फौज इतनी खौफ़जदा थी कि उसने रात में शहर पर हमला करने की हिम्मत न की। उधर नरु और साथियों ने आखिरी आरती की जगदीश मन्दिर में। एक दूसरे को बधाइयाँ दी गयी शहीद हो जाने की ख़ुशी में। शस्त्रों की पूजा के बाद अश्वों की पूजा की गयी।
केसरिया बाना (पगड़ी) पहने हर योद्धा इतरा रहा था। सभी मन्दिर के पीछे अपने घोड़ों के साथ मरने के लिए तैयार खड़े थे। एक ही सुर में तेज़ आवाज़े जगदीश मंदिर से पूरे शहर में गूंझ रही थी "एकलिंगनाथ की जय !जय माता दी ! हर हर महादेव। हर हर महादेव।" हर मेवाड़ी योद्धा की आँखों में ख़ून उतर आया था।
आखिर वो घडी आ गयी जब सारे दरवाजे तोड़ते हुए सुबह 9 बजे के के करीब मुगल फौज जगदीश मंदिर के पास ढलान पर भटियाणी चौहटा और घण्टाघर तक आ गयी। औरंगज़ेब के शहज़ादे मुहम्मद आज़म, सादुल्ला खां, इक्का ताज खां और रुहुल्ला खां की सेना अब भी आगे बढ़ने से कतरा रही थी क्योंकि पूरा उदयपुर खाली था और रात तक शंख नाद की आवाज़े आ रही थी। हुंकारे आ रही थी। सेना के साथ शहज़ादे मुहम्मद आज़म भी किसी अनहोनी की आशंका में थे। सादुल्ला खां ने अपने खास 50 सिपाहियों की टोली को आगे टोह लेने भेजा। जगदीश चौक तक आते आते सब के सब 50 हलाक कर दिए गए। खून से सड़क लाल हो चुकी थी। रक्त बहता हुआ ढलान में मुग़ल सेना की ओर आता दिखा। मुग़ल सेना में हड़कम्प मच गया।
स्थिति को इक्का ताज खां और रुहुल्ला खां ने सम्भाला और सेना से आगे बढ़ने को कहा। तभी हर हर महादेव के नारे बुलंद हो उठे। सुनसान शहर थर्रा उठा। मंदिर की उत्तर वाले दरवाज़े (जहाँ आज स्कूल है )से एक योद्धा लड़ने के लिए बाहर आया और ऐसी गति मानों बिजली चलीं आ रही हो। केसरिया बाना पहने पहला माचातोड़ यौद्धा अपना अंतिम कर्तव्य निभाने निकल चूका था। हर हर महादेव के हुंकार और घोड़े की टाप की आवाज़ों के साथ पत्थर सड़को पर खुर ज्यादा ही आवाज़ कर रहे थे।हर माचातोड़ यौद्धा कम से कम 50 दुश्मनों को मारकर ही अपना जीवन धन्य समझता। जैसे ही एक माचातोड़ यौद्धा शहीद होता उसी समय दूसरा माचातोड़ यौद्धा ढलान मे हूंकार भरता हुआ नीचे मुग़ल ख़ेमे में घुस कर कई मुग़लो को फ़ना कर देता।ऐसे ही मंदिर से एक-एक कर माचातोड़ यौद्धा बाहर आते गए। शाम होने चली आयी थी।
मुग़ल सेना सदमे में डरी हुई थी और हैरान भी थी माचातोड़ यौद्धा की वीरता पर। मुग़ल सेना में माचातोड़ यौद्धा को लेकर फुस फुसाहट हो रही थी और हर कोई नए माचातोड़ यौद्धा का इंतज़ार कर रहा था। किसी को पता नहीं था ऐसे कितने ओर माचातोड़ यौद्धा अभी भी छिपे है ऊपर मन्दिर की ओर ?
लेकिन समय और नियति पहले ही नरु बारहठ की वीरता का किस्सा लिख चुकी थी। आखिर में नरू बारहठ बाहर आए और बड़ी बहादुरी से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। केसरिया बाना पहने जिन्दा रहते हुए उनकी तलवार ने कई मुग़ल सिप्पसालारो को हलाक कर दिया। शीश कटने के बाद भी उनका धड़ तलवार चलाता रहा। मुग़ल सैनिक इधर उधर भागते फ़िरे। नरू बारहठ के शहीद होते ही मुग़ल सेना ने डर कर एक घण्टे ओर इंतज़ार किया। उसके बाद बादशाही फौज ने जगदीश मंदिर में मूर्तियों को तोड़कर मंदिर को तहस-नहस कर दिया।
इतिहासकार : जोगेन्द्र नाथ पुरोहित
शोध :दिनेश भट्ट (न्यूज़एजेंसीइंडिया.कॉम)
Email:erdineshbhatt@gmail.com