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History / केसरियाजी ऋषभदेव मंदिर में लगी है जल घडी,मोहम्मद अली जिन्ना ने माना महाराणा का फैसला !

arth-skin-and-fitness केसरियाजी ऋषभदेव मंदिर में लगी है जल घडी,मोहम्मद अली जिन्ना ने माना महाराणा का फैसला !
News Agency India May 19, 2019 10:18 AM IST

उदयपुर—अहमदाबाद राष्ट्रीय राज्यमार्ग पर उदयपुर से लगभग 60 किलोमीटर दूर गांव धूलेव में जैन तीर्थंकर ऋषभदेव का मंदिर स्थित है, जिन्हें केसरियाजी या केसरियानाथ के नाम से भी जाना जाता है।

यह प्राचीन तीर्थ अरावली पर्वतमाला की गुफाओं के मध्य कोयल नदी के किनारे स्थित है। आसपास के क्षेत्र में मार्बल की खान है तथा मार्बल का व्यवसाय भी होता है। इस मन्दिर में मूलनायक प्रतिमा जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की है, जो अतिप्राचीन है। यह मूलनायक प्रतिमा पद्मासन में है। इस मन्दिर में पूजा जैन धर्म के दिगम्बर मत व श्वेताम्बर मत दोनों से होती है। दोनों मतों से पूजा किये जाने हेतु अलग—अलग समय निर्धारित है। यह मंदिर न सिर्फ जैन धर्मावलंबियों, बल्कि वैष्णव हिंदुओं और मीणा व भील आदिवासियों व अन्य समुदायों द्वारा भी पूजा जाता है। ऋषभदेव को तीर्थयात्रियों द्वारा अत्यधिक मात्रा में केसर चढ़ाए जाने के कारण केसरियाजी कहा जाता है।

कई अलग-अलग किंवदंतियों से मंदिर की प्राचीनता का पता लगाने की कोशिश की जाती है। किंवदंतियों में से एक यह है कि एक एक आदिवासी व्यक्ति धूलाभील ने एक टीले के नीचे भगवान ऋषभदेव की मूर्ति की खोज की जहां एक कामधेनु (स्व दुधारू) गाय प्रतिदिन अपना दूध डालती थी। यह तथ्य विवादित नहीं है कि मूर्ति 1200 साल से अधिक पुरानी है। आज यह मंदिर श्वेतांबर, दिगंबर और स्थानीय भीलों की भक्ति का केंद्र है। मंदिर सभी बहुलतावाद के बारे में है- भील मूर्ति की पूजा कालाजी बावजी के रूप में करते हैं, ब्राह्मण इनको भगवान विष्णु का आठवां अवतार मानते हैं जबकि तथ्य यह है कि यह है वास्तव में जैन धर्म के तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव को समर्पित एक जैन मंदिर है। स्वामी की मूर्ति ऋषभदेव को "केसरियाजी" के नाम से जाना जाता है क्योंकि केसर (केसर) का बड़ा चढ़ावा प्रतिदिन चढ़ाया जाता है। स्थानीय भील केशरिया जी का गहरा सम्मान करते हैं और पूजा अर्पित करने के बाद ही सभी गतिविधियों को शुरू करते हैं।

जैन बहुलता होने के कारण महाराणा भी भगवान ऋषभदेव के भक्त बन गए और यहाँ पूजा की। एक हीरा जड़ी आंगी (कोट) भी उदयपुर के महाराज फतेह सिंहजी द्वारा भेंट की गई थी, जिसमें एक लाख रुपये की लागत आई थी। 19 वीं सदी की शुरुआत का मंदिर प्रबंधन आजादी से पहले सीधे उदयपुर के महाराणा के अधीन था। महाराणाओं के शासन समाप्त होने के बाद विवाद पैदा हुए, क्योंकि प्रशासन में सभी पक्षों ने अपना अपना दावा किया था। श्वेतांबर, दिगंबर और अन्य हिंदू समुदाय सहित भील समाज आज भी इस मंदिर को अपना मन्दिर बताता है।

यह माना जाता है कि मंदिर एक हिंदू मंदिर था। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में दिया कि उत्पादित सामग्री पर विचार करने के बाद 1974 में फैसला किया कि यह एक श्वेतांबर जैन मंदिर है। हालाँकि,चूंकि उक्त मंदिर के प्रबंधन का अधिकार मेवाड़ राज्य द्वारा पहले ही ले लिया गया था इसलिए, भारतीय संविधान लागू होने के बाद जैनियों को मंदिर का प्रबंधन करने का कोई अधिकार नहीं था। 18 वीं सदी के अंत से, मंदिर ने कई हिंसक घटनाओं को देखा है। इन समुदायों के बीच झड़पें बहुत कड़वाहट पैदा करती हैं। 2007 का सुप्रीम कोर्ट का फैसला जैन समुदाय के प्रशासन के कारण स्थानीय भीलों ने विरोध और हिंसा की।

यहां ऋषभदेव की काले रंग की प्रतिमा स्थापित है। यहां के आदिवासियों के लिए केसरियाजी कालिया बाबा के नाम से प्रसिद्ध हैं। मन्दिर में कुल 23 प्रतिमाये हैं और इसके बाहर प्रवेश द्वार पर हाथी की प्रतिमाएं हैं। चैत्री वदी 8 व 9 को क्षेत्र में बड़ा उत्सव माना जाता है और यात्रा भी निकाली जाती है। मन्दिर पर सशुल्क भोजनालय और धर्मशाला की व्यवस्था है। वर्तमान में मन्दिर की व्यवस्था राजस्थान सरकार द्वारा की जाती है तथा रुकने के लिये सबसे अच्छी धर्मशाला कीका भाई धर्मशाला है।राजस्थान में उदयपुर जिले में ऋषभदेव में स्थित केसरिया जी मंदिर लगभग डेढ़ हजार साल पुराना है। केसरियाजी में पूजा आज भी एक खास घड़ी के अनुसार होती है। समय देखने के लिए आज कई तरह की घड़ियां है। जिनमें सटीक समय पता लगाया जा सकता है, लेकिन यहां आज भी जल घड़ी (water watch) से ही समय का अनुमान लगाया जाता है। इस जल घड़ी के अनुसार ही पूजा-अर्चना होती है। यह जल घड़ी केसरियाजी के मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार पर स्थापित है। प्राचीन काल में हमारे पूर्वजों ने एक विशेष और अलग तरह की घड़ी को इज़ाद किया था, जो पानी के ऊपर आधारित थी, जिसे घटिका यंत्र कहा गया। यह घड़ी भी वैसी ही है।

प्राचीन भारतीयों ने दिन और रात को पहले 60 भागों में बांट दिया था, जिसे 'घड़ी' कहा गया। रात और दिन को चार भागों में बांट दिया, जिन्हें 'पहर' कहा गया। जल घड़ी को प्राचीन समय मापक उपकरण के रूप में मान्यता प्राप्त है। उस वक्त धूप घड़ी की भी मान्यता थी। जयपुर Jaipur के प्रसिद्ध जंतर-मंतर में धूप घड़ी आज भी विद्यमान है। इस अनोखी घड़ी को लकड़ी के बक्से में ताम्बे के बड़े भगोने में पानी भरकर रखा जाता है। इस भगोने में एक कटोरा होता है। कटोरे में एक छेद होता है। यह कटोरा तैरता रहता है। इस छेद के कारण कटोरा 24 मिनट में पानी से भर जाता है। जैसे ही यह कटोरा भरता है गार्ड घंटी बजाता है और समय की सूचना देता है।भारतीय समय IST Time से मंदिर के कार्यों के समय में 45 मिनट का अंतर होता है। एक घड़ी 24 मिनट की मानी जाती है। आठ घड़ी का एक प्रहर होता है और चार प्रहर का एक दिन माना जाता है।

रिषभदेव मन्दिर और मोहम्मद अली जिन्ना

यहां केसर चढ़ाने का अधिकार हर आदमी को था जो भी आदमी पहले भगवान केसरिया को स्नान करा कर पुरानी चढ़ी केसर धो डालेगा चाहे वह कितनी ही मंहगी हो या कितनी ज्यादा हो फिर वह अपनी लायी हुई केसर चढ़ाएगा चाहे वह सुक्ष्म या सस्ती हो ! भावना को हमेशा बड़ा रखा गया, फिर कोई नया भक्त आएगा और फिर पुरानी को धोकर न‌ई महंगी केसर चढ़ाएगा। यहां पुजा करने व मन्दिर प्रवेश पर कोई भेदभाव नहीं था। जैन सम्प्रदाय के दोनों पक्ष दिगम्बर श्रवेताम्बर पुजा करते भेंट चढ़ाते और ध्वजा दण्ड चढ़ाते रहे है।

महाराणा फतहसिह जी के काल के अन्तिम समय में विवाद छिड़ गया।

श्वेताम्बर जैन कहने लगे कि पुजा प्रबंध हमारा है, वही दिगंबर जैन कहने लगे पुजा प्रबंध हमारा है दोनों ही अपनी अपनी पुजा पद्धति से पुजा करना चाहते थें इसी बात को लेकर दोनों समुदायों में आपस में मारपीट हो गई और मन्दिर में भगदड़ के बाद 2 श्रद्धालुओं की मृत्यु हो गई।

तब महाराणा फतहसिह जी ने इस मामले में हस्तक्षेप किया। मन्दिर का सारा प्रबंध मेवाड़ राजपरिवार का था और देवस्थान से संबंधित था तब महाराणा ने वही के प्रबंध कर्ता और जिला ऑफिस के अफसर को लगाकर कारवाई प्रारंभ की।उधर से दोनों गुटों ने कानुनी उजरदारिया शुरू की। पर महाराणा फतहसिह जी के देवलोकगमन के बाद महाराणा भुपाल सिंह जी ने एक नयी समिति बनाई जिसमें सदस्य निम्न सदस्य थे :

  1. राजाधिराज अमरसिंह जी बनेडा
  2. जी सी ट्रेंच रेवेन्यू कमीशनर उदयपुर
  3. बाबु बिन्दुलाल भट्टाचार्य मेम्बर महेंद्राज सभा उदयपुर
  4. रत्तीलाल जी अंतानी मिनिस्टर उदयपुर      

इन चारों को महाराणा भुपालसिह जी ने आदेश दिया कि दोनों पक्षों के प्रमाण पत्र देखें और सही रिपोर्ट बना कर पेश करें। दोनों ही पक्ष धनी सम्पन्न थे तो उन्होंने हिन्दुस्तान के बड़े बड़े वकील बुलाए। इन वकीलों में निम्न लोग शामिल थे :

  1.  मोहम्मद अली जिन्ना
  2. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी जो आजादी के बाद युपी के राज्यपाल बने।
  3. चिमनलाल सितलवाड़,मुम्बई
  4.  मोतीलाल सितलवाड़ ,मुम्बई

सभी ने आपसी बहस और दलिले पेश करी। जब मामले की पुरी सुनवाई हुई तब महाराणा भूपालसिंह जी ने आदेश दिया कि इस मन्दिर की पुरानी रिती अनुसार हर सम्प्रदाय के लोग जैसे पुजा करते आए हैं वैसे ही चलेगी और जो सम्प्रदाय अधिक धन देता है पहली पुजा का अधिकारी वही होता है। यह प्रथा जो पहले से चली आ रही है वह भविष्य में भी प्रचलित रहनी चाहिए इसमें किसी हेर-फेर की आवश्यकता नहीं है। इस फैसले का सभी ने माना और सनातनी ,दिगंबर, भील और श्वेताम्बर सभी सन्तुष्ट हो ग‌ए। यह फैसला सन् 1935 को हुआ था।

संकलनकर्ता और शोध :दिनेश भट्ट (न्यूज़एजेंसीइंडिया.कॉम)

Email:erdineshbhatt@gmail.com

 

इतिहासकार :

 

जोगेन्द्र पुरोहित 

घाणेराव घाटी ,उदयपुर (राजस्थान)

नोट : उपरोक्त तथ्य लोगों की जानकारी के लिए है और काल खण्ड ,तथ्य और समय की जानकारी देते यद्धपि सावधानी बरती गयी है , फिर भी किसी वाद -विवाद के लिए अधिकृत जानकारी को महत्ता दी जाए। न्यूज़एजेंसीइंडिया.कॉम किसी भी तथ्य और प्रासंगिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है।

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