3 मार्च 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद राजस्थान के राजाओं और महाराजाओं ने अपनी पैतृक सत्ता हासिल करने के लिए देबारी में मेवाड़,मारवाड़ और जोधपुर के राजा के बीच एक सन्धि हूई जिसके अनुसार राजकुमार अजीत सिंह कच्छवाहा ,राजा सवाई जयसिंह व मेवाड़ महाराणा अमरसिंह द्वितीय के मघ्य समझौता हुआ।
समझौता जिसके अनुसार अजीतसिंह की मारवाड़ में, सवाई जयसिंह को आमेर मे पदस्थापित करने तथा महाराणा अमरसिंह द्वितीय की पुत्री का विवाह सवाई जयसिंह से करने एवं इस विवाह से उत्पन्न पुत्र की सवाई जयसिंह का उत्तराधिकारी घाषित करने पर सहमति हुई। महाराजा अजीतसिंह ने वीर दुर्गादास व अन्य सैनिको की मदद से जोधपुर पर अधिकार कर लिया और 12 मार्च, 1707 को उन्होंने अपने पैतृक शहर जोधपुर में प्रवेश किया। बाद में गलत लोंगों के बहकावे में आकर महाराजा अजीतसिंह ने वीर दुर्गादास जैसे स्वामीभक्त वीर को अपने राज्य से निर्वासित कर दिया, जहाॅ से वीर दुर्गादास दुःखी मन से मेवाड़ की सेवा में चले गए।
23 जून 1724 को महाराजा अजीतसिंह की इनके छोटे पुत्र बख्तसिंह की सोते हुए में हत्या कर दी। महाराणा उदय सिंह जी ने जब सन 1559 में अपनी राजधानी उदयपुर बनायी तभी सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण इस देबारी दरवाजे का निर्माण करवाया था। इस दरवाजे ने अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं। अकबर, जहांगीर और औरंगजेब के साथ मेवाड़ में युद्ध में यह दरवाजा दो बार तोड़ डाला गया था। काफी समय बाद महाराणा राज सिंह जी प्रथम ने सन 1629 और 1680 नए सिरे से दरवाजा पुनः बनवाया। उसके बाद आज तक अपनी प्राचीन वैभव की कहानी सुनाने वाले द्वार के साथ अनेक ऐतिहासिक प्रसंग घटनाएं और किंवदंतियां इस दरवाजे से जुड़े हुए है।
एक किवदंती यह भी है कि जिन दिनों महाराणा प्रताप अरावली की गोद में उदयपुर के पश्चिम में 15 किलोमीटर दूर उबेश्वर महादेव मंदिर के पास अपनी सेना के पुनर्गठन में लगे हुए थे तब मुगलों ने उन्हें वहीं घेरने का प्रयास किया। तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी। उबेश्वर महादेव का शिवलिंग बीच में से फट गया और उसमें से करोड़ों मधुमक्खियां निकली और मुगल सेना पर आक्रमण करके उसे देबारी दरवाजे के बाहर तक खदेड़ दिया। उस दिन से मधुमक्खियों ने देबारी दरवाजे पर ही अपना छत्ता बनाकर रहना शुरू कर दिया जिसे आज भी आप छत्तों के रूप में देख सकते है।
एक ओर किवदंती जो कि इस बात को ओर भी प्रमाणित करते हैं वो है इस देबारी दरवाजे के नजदीक 223 वर्ष पुराना एक शिव मंदिर का होना। इस मंदिर का निर्माण महाराणा राज सिंह जी के माता जाला वंशी बसंत कूदी ने महाराणा की मृत्यु के बाद 1817 से 1819 के बीच में करवा कर, उसका नाम राजराजेश्वर महादेव रखा। देबारी दरवाजे को पुराने नाम देव बारी से भी कहा जाता है। देव बारी का अर्थ यहाँ देवताओं की खिड़की भी होता है। यहां पर मंदिर और बावडी है। जमीन से लगभग 15 फुट ऊंचाई पर बना हुआ मंदिर है और यह 20 स्तंभों पर टिका हुआ बहुत ही सुंदर मंदिर है। इसी मंदिर के नजदीक धर्मशाला बनी हुई थी जो 1555 में महारानी सोंगारिजी ने देबारी गेट पर एक बावड़ी और सराय (सराय / यात्रियों के लिए विश्राम गृह) का निर्माण कराया;जो खंडहर हो चुकी है।पास में ही विक्रमी संवत 1736 में जब औरंगजेब ने लड़ाई युद्ध छेड़ा था उनके विरुद्ध देबारी द्वार पर लड़े हुए युद्ध में वीरता दिखाने वाले राठौड़ गोरा सिंह जिन्हें घेर सिंह के नाम से जाना जाता है ,शहीद हो गये जिनकी याद में छतरी बनाई गयी जो अभी अच्छी हालत में नहीं है।
इतिहासकार : जोगेन्द्र नाथ पुरोहित
शोध :दिनेश भट्ट (न्यूज़एजेंसीइंडिया.कॉम)
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