महाराणा प्रताप सिंह उदयपुर, मेवाड में सिसोदिया राजपूत राजवंश के राजा थे। उनका नाम इतिहास में वीरता और दृढ प्रण के लिये अमर है।उन्होंने कई सालों तक मुगल सम्राट अकबर के साथ संघर्ष किया।महाराणा प्रताप का जन्म कुम्भलगढ़ दुर्ग में हुआ था। महाराणा प्रताप की माता का नाम जयवंता बाई था, जो पाली के सोनगरा अखैराज की बेटी थी। महाराणा प्रताप को बचपन में कीका के नाम से पुकारा जाता था।राणा उदयसिंह केे दूसरी रानी धीरबाई जिसे राज्य के इतिहास में रानी भटियाणी के नाम से जाना जाता है, यह अपने पुत्र कुंवर जगमाल को मेवाड़ का उत्तराधिकारी बनाना चाहती थी। प्रताप केे उत्तराधिकारी होने पर इसकेे विरोध स्वरूप जगमाल अकबर केे खेमे में चला जाता है। महाराणा प्रताप का प्रथम राज्याभिषेक मेंं 28 फरवरी, 1572 में गोगुन्दा में होता हैै, लेकिन विधि विधानस्वरूप राणा प्रताप का द्वितीय राज्याभिषेक 1572 ई. में ही कुुंभलगढ़़ दुुर्ग में हुआ, दूूूसरे राज्याभिषेक में जोधपुर का राठौड़ शासक राव चन्द्रसेेन भी उपस्थित थे।
1576 के हल्दीघाटी युद्ध में 20000 राजपूतों को साथ लेकर राणा प्रताप ने मुगल सरदार राजा मानसिंह के 80000 की सेना का सामना किया। शत्रु सेना से घिर चुके महाराणा प्रताप को झाला मानसिंह ने आपने प्राण दे कर बचाया ओर महाराणा को युद्ध भूमि छोड़ने के लिए बोला। शक्ति सिंह ने अपना अश्व (घोड़ा)दे कर महाराणा को बचाया। उनके प्रिय अश्व चेतक की भी मृत्यु हुई। यह युद्ध तो केवल एक दिन चला परन्तु इसमें 17000 लोग मारे गए।मेवाड़ को जीतने के लिये अकबर ने सभी प्रयास किये। महाराणा प्रताप के शासनकाल में सबसे रोचक तथ्य यह है कि मुगल सम्राट अकबर बिना युद्ध के प्रताप को अपने अधीन लाना चाहता था,इसलिए अकबर ने प्रताप को समझाने के लिए चार राजदूत नियुक्त किए जिसमें सर्वप्रथम सितम्बर 1572 ई. में जलाल खाँ प्रताप के खेमे में गये, इसी क्रम में मानसिंह (1573 ई. में ), भगवानदास ( सितम्बर, 1573 ई. में )तथा राजा टोडरमल ( दिसम्बर,1573 ई. ) प्रताप को समझाने के लिए पहुँचे,लेकिन राणा प्रताप ने चारों को निराश ही किया, इस तरह राणा प्रताप ने मुगलों की अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया और हमें हल्दी घाटी का ऐतिहासिक युद्ध देखने को मिला ।
हल्दीघाटी का युद्ध
ये युद्ध 18 जून 1576 ईस्वी में मेवाड़ तथा मुगलों के मध्य हुआ था। इस युद्ध में मेवाड़ की सेना का नेतृत्व महाराणा प्रताप ने किया था। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ने वाले एकमात्र मुस्लिम सरदार थे- हकीम खाँ सूरी। इस युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व मानसिंह तथा आसफ खाँ ने किया था । इस युद्ध का आँखों देखा वर्णन अब्दुल कादिर बदायूनीं ने किया। इस युद्ध को आसफ खाँ ने अप्रत्यक्ष रूप से जेहाद की संज्ञा दी। इस युद्ध में बींदा के झालामान ने अपने प्राणों का बलिदान करके महाराणा प्रताप के जीवन की रक्षा की। वहीं ग्वालियर नरेश 'राजा रामशाह तोमर भी अपने तीन पुत्रों 'कुँवर शालीवाहन', 'कुँवर भवानी सिंह' 'कुँवर प्रताप सिंह' और पौत्र बलभद्र सिंह एवं सैकडों वीर तोमर राजपूत योद्धाओं समेत चिरनिद्रा में सो गए ।
इतिहासकार मानते हैं कि इस युद्ध में कोई विजयी नहीं हुआ। पर देखा जाए तो इस युद्ध में महाराणा प्रताप सिंह विजय हुए।अकबर की विशाल सेना के सामने मुट्ठीभर राजपूत कितनी देर तक टिक पाते, पर ऐसा है नहीं,ये युद्ध पूरे एक दिन चला ओेैर राजपूतों ने मुग़लों के छक्के छुड़ा दिया थे और सबसे बड़ी बात यह है कि युद्ध आमने सामने लड़ा गया था। महाराणा की सेना ने मुगलों की सेना को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया था और मुगल सेना भागने लग गयी थी।
दिवेेेेर का युुद्ध
राजस्थान के इतिहास 1582 में दिवेर का युद्ध एक महत्वपूर्ण युद्ध माना जाता है, क्योंकि इस युद्ध में राणा प्रताप के खोये हुए राज्यों की पुनः प्राप्ती हुई, इसके पश्चात राणा प्रताप व मुगलो के बीच एक लम्बा संघर्ष युद्ध के रुप में घटित हुआ, जिसके कारण कर्नल जेम्स टाॅड ने इस युद्ध को "मेवाड़ का मैराथन" कहा ।
सफलता और अवसान:
1579 से 1585 तक पूर्व उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार और गुजरात के मुग़ल अधिकृत प्रदेशों में विद्रोह को दबाने में उलझा रहा और मेवाड़ पर से मुगलो का दबाव कम हो गया। इस बात का लाभ उठाकर महाराणा ने 1585 में मेवाड़ से मुगलो से मुक्ति के प्रयत्नों को और भी तेज कर लिया। महाराणा की सेना ने मुगल चौकियों पर आक्रमण शुरू कर दिए और तुरंत ही उदयपूर समेत 36 महत्वपूर्ण स्थान पर फिर से महाराणा का अधिकार स्थापित हो गया। महाराणा प्रताप ने जिस समय सिंहासन ग्रहण किया ,उस समय जितने मेवाड़ की भूमि पर उनका अधिकार था ,पूर्ण रूप से उतने ही भूमि भाग पर अब उनकी सत्ता फिर से स्थापित हो गई थी। बारह वर्ष के संघर्ष के बाद भी अकबर उसमें कोई परिवर्तन न कर सका। और इस तरह महाराणा प्रताप समय की लंबी अवधि के संघर्ष के बाद मेवाड़ को मुक्त करने में सफल रहे और ये समय मेवाड़ के लिए एक स्वर्ण युग साबित हुआ। मेवाड़ पर लगा हुआ अकबर ग्रहण का अंत 1585 में हुआ। उसके बाद महाराणा प्रताप उनके राज्य की सुख-सुविधा में जुट गए,परंतु दुर्भाग्य से उसके ग्यारह वर्ष के बाद ही 19 जनवरी 1597 में अपनी नई राजधानी चावंड में उनकी मृत्यु हो गई।
महाराणा प्रताप सिंह के डर से अकबर अपनी राजधानी लाहौर लेकर चला गया और महाराणा के स्वर्ग सीधारणे के बाद पुनः आगरा ले आया।'एक सच्चे राजपूत, शूरवीर, देशभक्त, योद्धा, मातृभूमि के रखवाले के रूप में महाराणा प्रताप दुनिया में सदैव के लिए अमर हो गए।
महाराणा प्रताप सिंह के मृत्यु पर अकबर की प्रतिक्रिया
अकबर महाराणा प्रताप का सबसे बड़ा शत्रु था,लेकिन उनकी यह लड़ाई कोई व्यक्तिगत द्वेष का परिणाम नहीं थी, हालांकि अपने सिद्धांतों और मूल्यों की लड़ाई थी। एक तरह अकबर जो अपने क्रूर साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था,दुसरी तरफ महाराणा प्रताप थे जो अपनी भारत मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए संघर्ष कर रहे थे। महाराणा प्रताप की मृत्यु पर अकबर को बहुत ही दुःख हुआ क्योंकि ह्रदय से वो महाराणा प्रताप के गुणों का प्रशंसक था और अकबर जानता था कि महाराणा जैसा वीर कोई नहीं है इस धरती पर। यह समाचार सुन अकबर रहस्यमय तरीके से मौन हो गया और उसकी आँख में आंसू आ गए।महाराणा प्रताप के स्वर्गावसान के समय अकबर लाहौर में था और वहीं उसे सूचना मिली कि महाराणा प्रताप की मृत्यु हो गई है।अकबर की उस समय की मनोदशा पर अकबर के दरबारी दुरसा आढ़ा ने राजस्थानी छंद में जो विवरण लिखा वो कुछ इस तरह है:-
अस लेगो अणदाग पाग लेगो अणनामी
गो आडा गवड़ाय जीको बहतो घुरवामी
नवरोजे न गयो न गो आसतां नवल्ली
न गो झरोखा हेठ जेठ दुनियाण दहल्ली गहलोत राणा जीती गयो दसण मूंद रसणा डसी
निसा मूक भरिया नैण तो मृत शाह प्रतापसी
अर्थात हे ! गहलोत राणा प्रतापसिंह ,आपकी मृत्यु पर शाह यानि सम्राट ने दांतों के बीच जीभ दबाई और निश्वास के साथ आंसू टपकाए। क्योंकि आपने कभी भी अपने घोड़ों पर मुगलिया दाग नहीं लगने दिया। आपने अपनी पगड़ी को किसी के आगे झुकाया नहीं, हालांकि आप अपना आडा यानि यश या राज्य तो गवां गये लेकिन फिर भी आपने अपने राज्य की धूरी को बांए कंधे से ही चलाते रहे। आपकीं रानियां कभी नवरोजों में नहीं गईं और ना ही आप खुद आसतों यानि बादशाही डेरों में गये। आप कभी शाही झरोखे के नीचे नहीं खड़ा रहे और आपका रौब दुनिया पर निरंतर बना रहा। इसलिए मैं कहता हूं कि आप सब तरह से जीत गये और बादशाह हार गया।
अकबर द्वारा गुजरात की विजय के बाद मेवाड़ ने फिर से ध्यान आकर्षित किया। वह पूरी तरह से जानता था कि मेवाड़ समस्या का समाधान किए बिना उसके अन्य राजपूत राज्यों के साथ गठबंधन स्थिर नहीं हो सका। संयोग से उसी वर्ष (1572) राणा उदय सिंह की मृत्यु हो गई और थोड़े समय के बाद उत्तराधिकार की लड़ाई हुई। राणा प्रताप गोगुन्दा में मेवाड़ के शासक के रूप में सफल हुए। शीघ्र ही बाद में उन्होंने अपनी राजधानी को कुंभलगढ़ नामक एक बहुत सुरक्षित स्थान पर स्थानांतरित कर दिया।
मेवाड़ को अकबर ने लगातार आधीनता स्वीकार करने के लिए उन्हीं शर्तों पर मुगलों की अधीनता में शामिल करने को कहा जो अन्य राजपूत सरदारों को पेश की गई थी। सितम्बर 1572 को राणा प्रताप के दरबार में जलाल खान कुरची अकबर के दूत बनकर आये पर वह प्रताप को मुगलों के अधिपत्य को स्वीकार करने के लिए समझाने में नाकाम रहे और निराश होकर लौटे। अकबर के दूत राजा यार सिंह जो 1573 में भेजे गए थे वो भी वांछित परिणाम प्राप्त करने में विफल रहे। अक्टूबर 1573 में अकबर ने प्रताप को लुभाने मुगल में अग्रणी राजपूत राजा भगवंत दास कच्छवाहा प्रमुख और को भेजने का एक और प्रयास किया।अकबर चाहता था कि महाराणा प्रताप अकबर के दरबार में व्यक्तिगत उपस्थिति दर्ज़ कर मित्रता का हाथ पकड़ दासता स्वीकार कर ले । व्यक्तिगत रूप से प्रस्तुत करने के लिए प्रताप की अनिच्छा भगवंत दास और अकबर के सन्देश की शर्तों को खारिज कर दिया। अकबर राणा प्रताप की व्यक्तिगत उपस्थिति पर जोर देते थे। दूतो द्वारा किए गए असफल प्रयासो के बाद अकबर का रवैया और सख्त हो गया था और फिर फलस्वरूप मान सिंह की कमान के तहत एक शक्तिशाली सेना को राणा प्रताप को दंडित करने के लिए भेजा गया। युद्ध योजना की निगरानी हेतू अकबर सम्राट 1576 को व्यक्तिगत रूप से अजमेर गए थे पर जैसा कि सर्वविदित है कि मुगल सेना राजपूत सेना पर भारी पड़ी और राणा प्रताप 1576 में हल्दीघाटी के युद्ध के बाद कोलियारी ठिकाने पर आ गए और एक पहाड़ी शहर में शरण ली। इसके बाद सम्राट अकबर राजधानी आगरा लौट गए । राणा प्रताप पर अपनी चोटों से उबरने के बाद कुंभलगढ़ लौट आए अपने खोए हुए भू भाग को पुनः प्राप्त करने के लिए प्रयास करना शुरू कर दिया। मुगलों के खिलाफ राजपूत प्रमुखों के एक समूह का एक गठबंधन करने में उन्होंने सफलता प्राप्त की । प्रताप की इन शत्रुतापूर्ण गतिविधियों का पता अकबर को व्यक्तिगत रूप से अजमेर में ही चल गया और भगवंत दास और मान सिंह को उनके और अन्य के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए मेवाड़ की और भेजा। अजमेर में सम्राट अकबर की उपस्थिति मजबूत थी और सैन्य कार्रवाई के वांछित परिणाम आ सकते थे। उधर ईडर और सिरोही के शासको ने एक के बाद एक कर अकबर के सामने आत्मसमर्पण कर दिया और मुग़ल अधिपत्य स्वीकार कर लिया। साथ ही राणा प्रताप को भी गोगुन्दा से भागने के लिए मजबूर किया गया था और वे शाही अधिकार को तब तक टालते रहे जब तक कि उनकी 1597 में मृत्यु हो गई लेकिन मेवाड़ राजपूताना में पूरी तरह से अलग-थलग पड़ गया था । हालांकि कई महत्वपूर्ण सैन्य कमांडर जैसे भगवंत दास (1577) , शाहबाज़ खान कम्बोह (1577),अब्दुर रहीम खान-इकन (1580) और राजा जगमीमथ (1584 ) को उनके खिलाफ भेजा गया लेकिन वे राणा को शाही सेवा में शामिल होने के लिए मजबूर करने में विफल रहे। उन्होंने चावंड में एक नई राजधानी की नींव भी रखी।1597 में उनके बड़े बेटे और उत्तराधिकारी ने अमर सिंह की मृत्यु के बाद कुछ समय के लिए अपने पिता की नीति को जारी रखा। लेकिन लगातार युद्धों के कारण उनकी सैन्य शक्ति में काफी गिरावट आई और उन्होंने अपने कई क्षेत्रों को खो दिया। अमर सिंह ने इसे बेहतर बनाने के लिए कड़ी मेहनत की अपने राज्य के आंतरिक कामकाज और उसके साथ अपने संबंधों को बेहतर बनाने की कोशिश की। अगम ने 1599 में मेवाड़ पर आक्रमण शुरू किया।अकबर ने राजकुमार सलीम के साथ सेना के कमांडर राजा मान सिंह को अजमेर से मेवाड़ जाने को कहा लेकिन सलीम ने ऑपरेशन में कोई दिलचस्पी नहीं ली क्योंकि वह मुगल सिंहासन पर कब्जा करने की साजिश रचने में लगे हुआ था। बाद में उदयपुर की एक छोटी यात्रा करते हुए उन्होंने इसे पूरी तरह से राजा मान सिंह पर छोड़ दिया। इनमें मुग़ल सेनाएँ केवल अटाला में पद स्थापित करने में सफल रहीं और मोही, बागोर, माण्डल ,मांडलगढ़, चित्तौड़ और अन्य स्थानों पर मुग़ल सेना कब्ज़े में असफल रही।
कुछ समय बाद मान सिंह को बंगाल जाना पड़ा और उस्मान के विद्रोह के कारण सलीम ने आगरा की ओर प्रस्थान किया। 1603 में एक बार फिर अकबर ने मेवाड़ पर अभियान चलाने का फैसला किया। राजकुमार सलीम के साथ कई प्रमुख राजपूत के साथ कई प्रमुख राजपूत राजाओ के जैसे साजगरैयाथ, माधो सिंह, सादिक खान आदि) को आदेश दिया कि वे सभी 1599 में अधूरे रह गए कार्य को पूरा करने के लिए मेवाड़ की ओर चलें। लेकिन सलीम ने आदेशों का पालन करने से इनकार कर दिया। बिना किसी और इंतजार के अकबर ने खुसरू को कमान संभालने के लिए नियुक्त किया गया लेकिन अभियान नहीं चल सका। अकबर की बीमारी के बाद उनकी मृत्यु हो गयी ।
स्पष्ट है कि अकबर अपने जीवन काल के दौरान अपने समकालीन सिसोदिया प्रमुख राणा प्रताप और अमर सिंह को पूरी तरह हराने में असफल रहे और मुगलिया सल्तनत का अधिपत्य मेवाड़ पर हो न पाया ।
उपरोक्त तथ्य लोगों की जानकारी के लिए है और काल खण्ड ,तथ्य और समय की जानकारी देते यद्धपि सावधानी बरती गयी है , फिर भी किसी वाद -विवाद के लिए अधिकृत जानकारी को महत्ता दी जाए। न्यूज़एजेंसीइंडिया.कॉम किसी भी तथ्य और प्रासंगिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है।