कर्नाटक की सभी 224 विधानसभा सीटों पर वोटों की गिनती अभी तक जारी है। फिलहाल रुझानों में कांग्रेस, बीजेपी को शिकस्त देते हुए प्रचंड बहुमत के साथ राज्य में सरकार बनाती दिखाई दे रही है। मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई ने हार स्वीकार करते हुए कहा कि इस पर मंथन किया जाएगा। आइये जानते हैं कर्नाटक में भाजपा की हार के बड़े कारण क्या हैं?
भ्रस्टाचार और 40 प्रतिशत कमीशन
पूर्ववर्ती भाजपा गठबंधन की सरकार पर कमीशन खोरी के आरोप लगते रहे और भाजपा ने केवल विकास की बात करते हुए कमीशन खोरी की शिकायतों पर संजीदगी दिखाने की कोशिश नहीं की। फलस्वरूप बड़ा वोटर वर्ग भाजपा से छिटकता चला गया और कांग्रेस ने भाजपा के खिलाफ चुनावी माहौल की शुरुआत से ही '40 प्रतिशत कमीशन वाली सरकार' का एजेंडा सेट किया। यह मुद्दा धीरे-धीरे बड़ा मुद्दा बन गया। इस मुद्दे पर ही एस ईश्वरप्पा को मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। यही नहीं, एक बीजेपी विधायक को जेल भी जाना पड़ा। बीजेपी अंत तक इसकी काट नहीं तलाश पाई।
धार्मिक ध्रुवीकरण पड़ गया उल्टा
कांग्रेस ने घोषणा पत्र में बजरंग दल को बैन करने की बात कही थीं। ठीक इसके बाद भाजपा ने इसे धार्मिक एंगल देते हुए भगवान बजरंग बली से जोड़ दिया। भाजपा ने कहा कि कांग्रेस ने बजरंगबली का अपमान किया है। लेकिन इसके उलट काँग्रेस के पक्ष में मुस्लिम वोट JDS से छिटक कर काँग्रेस की झोली में आ गिरे। वहीं भाजपा को बजरंग बली के नाम पर मिलने वाले वोटो की संख्या में कोई बढ़ोतरी नहीं देखी गयी। बीजेपी के लिए धार्मिक ध्रुवीकरण का ये दांव काम नहीं आया।भाजपा ने चुनाव से ठीक पहले राज्य में अल्पसंख्यक आरक्षण को खत्म कर दिया, जिसका उसे नुकसान उठाना पड़ा।भाजपा ने अचानक टीपू सुल्तान का मुद्दा उठा दिया. टीपू सुल्तान की छवि खराब करने की कोशिश की गई, लेकिन जनता ने भाजपा को इसमें समर्थन नहीं दिया।
लिंगायत समुदाय के बड़े नेताओं को साइड लाइन करना
लिंगायत समुदाय से आने वाले कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा को कर्नाटक के इस चुनाव में साइड लाइन किया गया। वहीं पूर्व सीएम जगदीश शेट्टार और पूर्व डिप्टी सीएम लक्ष्मण सावदी का भी टिकट काट दिया गया। ये तीनों नेता ही लिंगायत समुदाय के बड़े नेता माने जाते हैं। चुनावों में इन्हें साइड लाइन या नजर अंदाज करना भाजपा को भारी पड़ता दिखाई दिया।
भाजपा का अहंकार ,मिडिल क्लास को कोई राहत नही देना
सोशल मीडिया पर ये भी देखा गया कि कुछ लोग कह रहे कि भाजपा का अहँकार ही इस चुनावों में उसे ले डूबा है। गैस सिलिंडर की बढ़ती कीमत, महँगाई, पैट्रोल-डीजल की बेलगाम कीमतें मिडिल क्लास को पहले से ही नाराज किये बैठी थी। इसके साथ ही अस्पतालों और प्राइवेट स्कूलों की लूट को नजरअंदाज करने जैसे मुद्दे भी बैकग्राउंड में भाजपा का वोट शिफ्ट कर रहे थे। बीजेपी हाईकमान को समझना पड़ेगा कि वन्दे भारत में यात्रा करने वाले वोट देने शायद ही जाते हो लेकिन लोकल में लटकने वाले थोक में वोट देते है।
BJP की "सबका विश्वास" जीत की नाकाम राजनीति
प्रधानमंत्री मोदी कुछ सालों पहले एक नया ध्येय वाक्य/ नारा लेकर आये। "सबका साथ और सबका विकास" और अपनी परंपरागत छवि से इतर उन्होंने समाज के हर तबके तक सरकारी योजनाओं के लाभों को पहुँचाने की ईमानदार कोशिश की। लेकिन अपने परंपरागत वोट बैंक के लिए कुछ खास नहीं कर पाने की बातें भी कही सुनी जाती है। मोदी की नीतियों को पसंद करने वाले वोटर्स का इंतजार लंबा होता चला गया और हिंदु वोटर तेजी से खिसकता चला जाता रहा। वहीं भाजपा ने फ्री की रेवड़ियों वाली चुनावी घोषणाओं से परहेज रखा, जिससे भी उसे अंदरखाने नुकसान ही हुआ।