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clean-udaipur अजातशत्रु संघ के प्रवाह में डुबकी लगाकर ही इसे जाना जा सकता है
राजीव तुली (@Rajivtuli69) October 06, 2022 02:10 PM IST

अजातशत्रु संघ के प्रवाह में डुबकी लगाकर ही इसे जाना जा सकता है

संघ किसी को भी अपना शत्रु नहीं मानता है। समाज दो भागों में है एक जो आज स्वयंसेवक हैं और दूसरे जो भविष्य में संघ से जुड़ेंगे, ऐसी संघ की कल्पना है। संघ से शत्रुता करने वाले लोग होंगे उनको समाप्त करने की संघ की कोशिश नहीं है, बल्कि उनको भी साथ लेकर एक समृद्ध तथा शक्तिशाली समाज बनाने के लिए संघ कटिबद्ध है। पूर्व में ऐसे बहुत से महानुभाव जो संघ से विरोध रखते थे संघ को निकट से जानने के बाद संघ के प्रशंसक बने। महात्मा गांधी, बाबा साहब अम्बेडकर, लोकनायक जय प्रकाश नारायण या सुप्रसिद्ध सम्पादक गिरिलाल जैन ऐसे कुछ नाम हैं जिन्होंने संघ को निकट से जाना और संघ के हो गए। संघ बाहर से देखने पर समझ नहीं आता, बाहर से समझने पर संघ आँख पर बंधी पट्टी से हाथी के शरीर भाग को छूने जैसा ही लगता है।

 

विभिन्न कारणों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को चर्चा में रखना मित्रों तथा अमित्रों दोनो के लिए लाभप्रद रहता है। अमित्र लिखा है शत्रु नहीं, क्योंकि संघ किसी को भी अपना शत्रु नहीं मानता है। समाज दो भागों में है एक जो आज स्वयंसेवक हैं और दूसरे जो भविष्य में संघ से जुड़ेंगे, ऐसी संघ की कल्पना है। संघ से शत्रुता करने वाले लोग होंगे उनको समाप्त करने की संघ की कोशिश नहीं है, बल्कि उनको भी साथ लेकर एक समृद्ध तथा शक्तिशाली समाज बनाने के लिए संघ कटिबद्ध है। पूर्व में ऐसे बहुत से महानुभाव जो संघ से विरोध रखते थे संघ को निकट से जानने के बाद संघ के प्रशंसक बने। महात्मा गांधी, बाबा साहब अम्बेडकर, लोकनायक जय प्रकाश नारायण या सुप्रसिद्ध सम्पादक गिरिलाल जैन ऐसे कुछ नाम हैं जिन्होंने संघ को निकट से जाना और संघ के हो गए।

 संघ बाहर से देखने पर समझ नहीं आता, बाहर से समझने पर संघ आँख पर बंधी पट्टी से हाथी के शरीर भाग को छूने जैसा ही लगता है। अधिकांशतः लोग संघ को पुस्तकें पढ़ कर या एक दो कार्यक्रमों या मीडिया द्वारा किए गए चित्रण से समझने का प्रयास करते हैं। कुछ संघ को हिंदुवादी, कुछ अतिवादी और कुछ अल्पसंख्यक विरोधी संगठन मानकर छवि बनाते हैं। बहुत से राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि भी अपने समर्थकों को समझाने के लिए तथा अपने स्वार्थों की सिद्धि के लिए संघ की वैसी छवि जो उनको सुविधाजनक लगती है, बताते हैं। परंतु संघ क्या है ये समझना है तो संस्कृत के इस श्लोक को समझना चाहिए-

गगनं गगनाकारं सागर: सागरोपम:।

रामरावणोयोर्युद्धं रामरावण योरिव ।।

इसका अर्थ है आकाश कितना बड़ा है ? उत्तर है “ गगनकारं”। यानी आकाश जितना ही। सागर कितना गहरा है? उत्तर है सागरोपम: । यानी सागर की तुलना सागर से ही की जा सकती है । वैसे ही राम-रावण का युद्ध, राम- रावण के युद्ध के ही समान है। भारतीय साहित्य में उपमा अलंकार के दो घटक रहते हैं- एक उपमेय, दूसरा उपमान। हाथ की तुलना कमल से की जाती है और “कर कमल” कहा जाता है, इसमें ‘कर’ उपमेय है और कमल ‘उपमान’। संघ की तुलना की जाए, ऐसा कोई और नहीं है इसलिए संघ, संघ जैसा ही है, उसका कोई उपमान नहीं है। इसलिए संघ को समझना है तो संघ की शाखा में जाकर ही अनुभूति से समझा जा सकता है। कम्प्यूटर का हार्डवेयर समझाया जा सकता है, एक स्क्रीन है, एक की बोर्ड है एक माउस है परंतु सॉफ़्ट्वेयर वही समझा सकता है जिसने उसका अनुभव किया। अब अगला प्रश्न आता है कि संघ करता क्या है?

सरल शब्दों में समझना हो तो संघ हिंदुओं का संगठन करता है। अगला प्रश्न है हिन्दू कौन और हिन्दू क्या है? हिन्दू की पहचान भौगोलिक दृष्टि से भी की जा सकती है और वैचारिक से भी। और हिन्दू धर्म भी है। धर्म अंग्रेज़ी वाला रिलिजन नहीं है।

पहले भौगोलिक़ दृष्टि वाला हिन्दू समझते हैं-

उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् ।

वर्षं तद्भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः ।।

अर्थात् - समुद्र के उत्तर में , हिमालय के दक्षिण में जो भूभाग है, उसका नाम भारत है । वहां जन्मे लोग भारती कहलाते हैं ।

हिमालय से प्रारम्भ होकर हिंद महासागर तक फैले भूभाग को भारत तथा इसमें रहने वालों को भारती कहा गया है, भारती कहें, राष्ट्रीय कहें या हिन्दू कहें, एक ही अर्थ है। हिंदू धर्म भी है और जीवन जीने की पद्धति भी है। धर्म का अर्थ अंग्रेज़ी वाला रिलिजन नहीं है। अंग्रेज़ी में धर्म का कोई पर्याय भी नहीं है। पानी का धर्म है ऊँचाई से निचाई की और जाना। इसी प्रकार ऊर्जा का धर्म ऊष्ण से शीतल की ओर जाना है। परोपकार के लिए रहने योग्य बनाया गया स्थान धर्मशाला कहलाता है, समाज सेवा के लिए बनायी गयी डिस्पेन्सरी धर्मार्थ चिकित्सालय कहलाती है। क्या इनका शाब्दिक अनुवाद इन शब्दों के साथ न्याय कर पाएगा? धर्मार्थ चिकित्सालय को “हॉस्पिटल फ़ोर रिलिजन” कह सकते हैं क्या? हिन्दू समाज जिस प्रकार का सामंजस्य और भाव इस सृष्टि के चर अचर, मनुष्य जीव जंतु इत्यादि में देखता है- इसे “मानव धर्म” भी कहना पर्याप्त नहीं है। जिस प्रकार हिंदू धर्म में पर्वतों यथा “देवतात्मा हिमालय” पेड़ पौधों यथा “तुलसी माता” नदियों यथा “गंगा मैय्या” अर्थात् सम्पूर्ण सृष्टि के सामंजस्य की बात कही है, इसे “सृष्टि- धर्म” कहना उचित हो सकता है। द्वैत-अद्वैत, साकार-निराकार, भौतिकवादी अनासक्तिवादी, सब विचारों का समान सम्मान ही हिंदू धर्म है। जैन,बौद्ध , सिख, आर्यसमाजी, सनातनी सभी इन्ही तत्वों को मानने वाले हैं। किसी का मूर्ति पूजा में विश्वास है तो कोई अमूर्त की पूजा करता है, कोई शिव पार्वती की पूजा करता है , कोई राधा कृष्ण की, कोई सीता राम की, कोई दुर्गा की परंतु किसी का कहीं भी दूसरे से विरोध नहीं है। इस्लाम या ईसाई रिलिजन के मानने वाले भी यदि अन्य मत,पंथ, सम्प्रदाय या रिलिजन का सम्मान करें और उनको सही मानें तो किसी प्रकार का कोई विभाजन समाज में नहीं दिखेगा और वो भी हिंदू धर्म की विशाल परिधि में सम्मिलित हो जाएँगे। परंतु वो यदि ऐसा मानें तो अपने रिलिजन का प्रसार नहीं कर पाएँगे।

इस धर्म को मानने वाले हिन्दू हैं और क्योंकि उनका उद्गम और मूल इसी राष्ट्र से है इसलिए ये हिंदू राष्ट्र है। “राष्ट्र” और राज्य दोनो में अंतर है, राष्ट्र लोगों से बनता है, एक राष्ट्र में कई राज्य हो सकते हैं, भारत में सदा रहे हैं। परंतु हिमालय से निकलने वाली गंगा का जल रामेश्वरम में अर्पित करने की पुरानी परम्परा है। देश के चार कोनों में बसे चार धामों की यात्रा से मोक्ष मिलता है, ऐसा विश्वास है। बारह ज्योतिर्लिंगों के दर्शन के बिना जीवन सम्पूर्ण नहीं माना जाता। भारत के जन-लोग इसे एक राष्ट्र बनाते हैं। जन का राष्ट्र बनने की कुछ मूल शर्तें हैं। जिस भूमि पर रहते हैं उसके प्रति मनोभाव- उस भूमि को मातृभूमि, पितृभूमि अथवा सरल शब्दों में कहें तो माता-पिता मानते हैं। अपने पूर्वजों के प्रति सम्मान का भाव रखते हैं। भारतभूमि में रहने वाले लगभग सब लोगों के पूर्वज समान हैं। तीसरा समान मूल्य व्यवस्था अर्थात् “ भारत माता की जय” और “वन्देमातरम” का अभिमान। पश्चिम के विद्वानों की राष्ट्र और राज्य की संकल्पना से भारत की राष्ट्र की संकल्पना भिन्न है।

पिछले एक हजार वर्षों में विभिन्न आक्रांताओं के कारण ये भाव और विचार कमजोर हुआ है। हिंदू समाज जाति, उपजाति,मत, पंथ, सम्प्रदाय के आधार पर बनता है और अपने मूल से कटा है। इस राष्ट्र की मूल समस्या बाहर वालों के शक्तिशाली होने के कारण नहीं यहाँ के समाज के कमजोर होने के कारण है। इसी समाज को संगठित करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में हुई। और तब से संघ लगातार समाज को संगठित करने के लिए व्यक्ति निर्माण के काम में लगा हुआ। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने ज़िम्मे केवल यही काम लिया है। संघ की पद्धति से निर्मित स्वयंसेवक समाज की दिशा और दशा ठीक करने के लिए जो उपयुक्त लगता है वो काम करते हैं। इसलिए संघ की तुलना किसी भी और संगठन से करना कहीं भी उचित नहीं लगता।

 

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