आदिवासियों और भारत के विकास को रोकने के लिए, कुछ राष्ट्र-विरोधी ताकतें और ईसाई धर्म में परिवर्तित आदिवासी, (जो आदिवासी नाम रखकर अपनीनई धार्मिक पहचान को छुपाते रहते हैं और गुप्त रूप से ईसाई धर्म का पालन-प्रचार करते हैं), आजकल एक अभियान चला रहे हैं। वे यह झूठ फैलाते हैं कीआदिवासी हिंदू नहीं हैं क्योंकि उनकी परंपराएं और रीति-रिवाज हिंदुओं से अलग हैं। जबकि यह जोर देकर कहा जा सकता है कि दुनिया का पहला सनातनीभारतीय आदिवासी ही था और गर्व की बात तो यह है की भारत में दुनिया की सबसे बड़ी आदिवासी आबादी रहती थी। वास्तव में बाकी धर्मों के विपरीत, सनातनी/आदिवासी परम्पराओं एवं रीती-रिवाज़ों की जड़ें विविध हैं तथा उनका कोई एक संस्थापक नहीं है; बल्कि वे भारतीय संस्कृति व परंपराओं के संश्लेषणसे बनी हैं। धार्मिक अनुष्ठानों और रीति-रिवाजों पर नज़र डालने से पता चलता है कि जनजातियों और हिंदुओं के कई रीति-रिवाज़/अनुष्ठान एक जैसे हैं।
1. Table
1. आदिवासी एवम सनातन/हिंदू संस्कृति दोनो ही: प्रकृति (पेड़, पर्वत, नदी व पशू) की पूजा करते हैं। पेड़ के नीचे रखे पत्थरों की पूजा करते हैं। बलि देते हैं एवं पूर्वजों की आत्मा की पूजा करते हैं।
2. आदिवासी एवम सनातन/हिंदू संस्कृति दोनो ही: अपने गोत्र में शादी नहीं करते।
3. आदिवासी एवम सनातन/हिंदू संस्कृति दोनो ही: श्री राम और श्री कृष्ण के भजन लिखते व गाते हैं और भगवान शिव, राम, दुर्गा, कृष्णा, बुद्धदेव, बड़ादेव, हनुमान व नाग देवता की उपासना करते हैं।
4. आदिवासी और हिंदू (दोनों के) राजाओं ने भगवान शिव, विष्णु, आदि के मंदिर बनवाए थे।
5. आदिवासी और हिंदू दोनों ही भिन्न-भिन्न प्रकार के त्योहार, जैसे की दशहरा,होली आदि मनाते हैं ।
6. आदिवासी और हिंदू दोनों ही प्रकृति के पांच तत्वों की पूजा करते हैं ।
7. आदिवासी और हिंदू दोनों ही सिंदूर, कुमकुम, अबीर, गुलाल, हल्दी आदि का उपयोग करते हैं ।
8. आदिवासी मूर्ति पूजा नहीं करते और बहुत से हिन्दू संप्रदाय भी मूर्ति पूजा नहीं करते, जैसे की आर्य समाज। यहां तक की वेदों में तो भगवान को निराकार बताया गया है। मूर्ति पूजा की शुरुआत बाद में हुई जो दिखाता है कि सनातन धर्म कितना लचीला है।
9. आदिवासी एवम सनातन/हिंदू दोनों में कुल देवता होते है।
10. आदिवासी एवम सनातन/हिंदू दोनों में शादी में फेरे लेते हैं।
11. आदिवासीयों में पाहन / नायके / बैगा / देवरी द्वारा पूजा की जाती है, जबकि हिंदुओं में पुजारी द्वारा पूजा (कुछ पुजारी शूद्र समुदाय से भी हैं) की जाती है तथा सबरीमाला, तिरुपति,जगन्नाथ एवं लिंगराज मंदिर का आदिवासी से संबंध है।
12. आदिवासी एवम सनातन/हिंदू संस्कृति दोनों ही में मरने के बाद जलाया या दफनाया जाता है। कुछ आदिवासी समुदायों में मरने के बाद देह समक्ष राम नाम सत्य का उच्चारण किया जाता है।
मतभेदों के संबंध में यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि कई बार दो अलग जनजाति (781 से अधिक जनजातियां जैसे गोंडी, भीली, आदी, साड़ी, कोया-पुनेम, सरना, बिडेन, आदि) या हिंदू धर्म के विभिन्न संप्रदायों के रीति-रिवाज भी मेल नहीं करते हैं। वास्तव में इस विविधता को भारत के बारे में एक बहुतप्रसिद्ध कहावत में ठीक ही इंगित किया गया है- "कोस कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी"| यह सनातन की सुंदरता रही है। यह अपने अनुयायियों कोरीति-रिवाजों , अनुष्ठानों , पूजा के तरीकों की स्वतंत्रता की अनुमति देता है।हिंदू धर्म अपने अनुयायियों को किसी भी समय, किसी भी तरह से, किसी की भी करने की अनुमति देता है, जबकि अन्य धर्म बहुत कठोर हैं और अपने अनुयायियों को एक निश्चित सिद्धांत का पालन करने के लिए मजबूर करते हैं।
हिंदू धर्म के साथ अपने मजबूत संबंधों के कारण आदिवासी भारत में फले-फूले एवं सुरक्षित रहे। इसके अलावा भगवान बिरसा मुंडा, ताना भगत, अहोम आदि के आंदोलनों का भी सनातनी प्रथाओं के साथ घनिष्ठ संबंध था। एक और तर्क यह है कि अंग्रेजों ने आदिवासियों को अलग कोड दिया था जिसे आजादी के बाद हटा दिया गया था। सभी जानते हैं कि अंग्रेजों के मन में कभी भी कोई नीति बनाते समय मूल निवासियों का हित नहीं था। एक ही मकसद था कि अपने शासन को लंबे समय तक बनाए रखने के लिए समाज को विभाजित किया जाए। यहां तक कि महात्मा गांधी और अन्य कांग्रेसी नेताओं ने भी अंग्रेजों के इस कदम का विरोध किया था। उन्होंने आदिवासियों को 'जीववादी' (aboriginal) के रूप में वर्गीकृत करने की भी निंदा की थी। उन्होंने आगे कहा कि अंग्रेजों द्वारा ऑस्ट्रेलिया के मूल लोगों के खिलाफ अपमानजनक शब्द के रूप में सबसे पहले आदिवासियों का इस्तेमाल किया गया था। एक और महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या अंग्रेजों की ऐसी संहिता ने आदिवासियों की मदद की? उत्तर एक जोरदार ना है। वास्तव में, स्वतंत्रता के बाद ही, भारतीय संविधान में आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता दी गई थी और सरकार ने उनके सामाजिक-आर्थिक-शैक्षिक उत्थान के लिए कई नीतियां बनाईं। वर्तमान समय में आदिवासी ऐसी नीतियों का लाभ उठा रहे हैं, जिससे राष्ट्र विरोधी एवं निहित तत्वों को परेशानी है क्योंकि वो जानते हैं कि अब उनका विभाजनकारी एजेंडा काम नहीं करेगा। इसलिए वे आदिवासियों के बीच मोहभंग पैदा कर उन्हें राष्ट्रीय मुख्यधारा/विकास से अलग करने के लिए नए और कमजोर तर्क तैयार कर रहे हैं। इन निहित स्वार्थों द्वारा इंगित एक और कारण यह है कि हिंदू विवाह अधिनियम जैसे कई कानून आदिवासियों पर लागू नहीं होते हैं। उन्हें पता होना चाहिए कि हिंदू विवाह अधिनियम व कुछ अन्य अधिनियम आदिवासियों परइसलिए लागू नहीं होते हैं क्योंकि भारतीय संविधान ने उन्हें अपने प्राचीन रीति- रिवाजों/अनुष्ठानों का अभ्यास/रक्षा करने का अधिकार दिया है ।
एक और झूठ फैलाया जा रहा है कि खुद को हिन्दू मानने से आदिवासी तथाकथित शूद्र बन जाएंगे। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है किजातिवाद और छुआछूत हिंदू धर्म में सबसे बड़ी सामाजिक बुराइयां थीं। लेकिन कई आदिवासी कुलों जैसे गोंड, भील आदि को राजपूतों के रूप में माना जाता था। वे आदिवासी, जो राष्ट्रीय मुख्यधारा से अलग-थलग रहे, उन्हें पांचवां वर्ण या अवर्ण माना जाता है। इतिहास के सावधानीपूर्वक अध्ययन से पता चलता है कि अन्य धर्मों के आगमन से पहले, हिंदुओं ने वर्ण व्यवस्था (पेशे के आधार पर वर्गीकरण) का अभ्यास किया न कि जाति-व्यवस्था का। वेदों व अन्य ग्रंथों में भी जाती का कहीं ज़िक्र नहीं है, केवल वर्ण का जिक्र है। ऐसा लगता है कि आक्रमणकारियों/धार्मिक शाखाओं ने हिन्दू धर्म के वास्तविक इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश किया और उन्होंने हिन्दू धर्म में घुसपैठ कर वर्ण-व्यवस्था को जाति-व्यवस्था/अस्पृश्यता में परिवर्तित कर दिया। अन्यथा भारतीय इतिहास मेंआदिवासियों और तथाकथित शूद्रों के असंख्य राजाओं को कोई कैसे समझा सकता है। इसके अलावा समकालीन दुनिया में, एक व्यक्ति का कद और सम्मान उसकी शिक्षा और आर्थिक स्थिति पर आधारित होता है, न कि उसकी जाति पर। भारत के संविधान ने अनुसूचित जाती/जनजातीयों के उत्थान के लिए कई क्षेत्रों में प्राथमिकता दी है।
एक झूठ यह फैलाया जा रहा है की अदालत ने कहा है की आदिवासी हिन्दू नहीं हैं, जबकि अदालत ने आदिवासियों को इस देश का मूलनिवासी मान उनके रीति-रिवाजों/अनुष्ठानों को माना, पर ऐसा कभी नहीं कहा की आदिवासी हिन्दू नहीं हैं। एक और तुच्छ तर्क यह है कि अलग कोड से जनजातीय आबादी की मात्रा का निर्धारण करने में मदद मिलेगी। जनगणना अभ्यासों में जनजातीय की आबादी (लगभग आठ करोड. पच्चास लाख) पहले ही निर्धारित की जा चुकी है। जनगणना फॉर्म में अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए पहले से ही एक कॉलम है। सरकार ने जनजातीय मामलों के मंत्रालय का गठन किया है और यह जनजातीय उत्थान के लिए कई नीतियां बनाकार उनका कार्यान्वयन कर रही है।
एक झूठ यह फैलाया जा रहा है कि जनगणना के प्रारूप में 'अन्य' का कॉलम हटा दिया गया जबकि ऐसा कुछ नहीं किया गया है। यह केवल निर्दोष आदिवासियों को भड़काने व गुमराह करने के लिए प्रचारित किया जा रहा है।राष्ट्र-विरोधी ताकतों के इस अभियान को धर्मांतरण करने वाली ताकतों के उन वर्गों का गुप्त समर्थन/मार्गदर्शन है जो 'भ्रमित करना, राजी करना और धर्मांतरित करना (Confuse, Convince and Conver) की नीति का पालन करने में विशेषज्ञ हैं। आदिवासियों को उनकी धार्मिक पहचान के बारे में भ्रमित कर उन्हें यह समझाने का प्रयास किया जा रहा है कि वे हिन्दू नहीं हैं । एक बार ऐसा हो जाने के बाद, उनका धर्मांतरण आसान हो जाएगा। इसके अलावा, यह आदिवासियों की संख्यात्मक ताकत को कम करने की एक चाल भी प्रतीत होती है क्योंकि उनमें से कुछ जनगणना अभ्यास में 'अन्य' कॉलम के तहत खुद का उल्लेख कर सकते हैं। ये उन्हें भारत में धार्मिक अल्पसंख्यक बना सकते हैं। एक बार जब हिन्दू आदिवासियों की संख्या कम हो जाएगी और वे अनुसूचित जनजाति से होने के लाभ को खो देंगे तो ये ईसाई आदिवासी उनका लाभ छीनना शुरू कर देंगे। ये धार्मिक-अल्पसंख्यक और अनुसूचित जनजाति, दोनों का लाभ ले रहे हैं और आगे और भी लेंगे। इसके अलावा, आदिवासी हिंदू धर्म के सबसे मजबूत स्तंभ थे क्योंकि उन्होंने आक्रमणकारियों द्वारा कई अत्याचारों और जातिवाद । अस्पृश्यता के रूप में अपने स्वयं के भाइयों की उदासीनता के बावजूद हिंदू धर्म को कभी नहीं छोड़ा। ऐसे में राष्ट्र-विरोधी ताकतों का उद्देश्य आदिवासियों को हिन्दू धर्म से दूर कर उस स्तंभ को कमज़ोर करना है। ऐसे में मेरा आदिवासी भाइयों से विनम्र निवेदन है कि ऐसी राष्ट्र-विरोधी तथा आदिवासी- विरोधी ताकतों की साजिश को समझ कर नाकाम करें ताकि एक मजबूत व स्थिर आदिवासी समुदाय व राष्ट्र बन सके।