उपराष्ट्रपति श्री जगदीप धनखड़ ने आज कहा कि, "...सनातन गौरव का पुनर्निर्माण हो रहा है। जो खो गया था, - और अधिक दृढ़ संकल्प के साथ उसे फिर से बनाया जा रहा है।"
आज पांडिचेरी विश्वविद्यालय में छात्रों और संकाय सदस्यों को संबोधित करते हुए, श्री धनखड़ ने कहा, “भारत के शैक्षिक भूगोल और इतिहास में - तक्षशिला, नालंदा, मिथिला, वल्लभी और कई अन्य शिक्षा के महान केंद्र रहे हैं। इन संस्थानों ने इतिहास के उस काल में, पूरे विश्व के लिए हमारे भारत को परिभाषित किया। विश्व भर के विद्वान अपने विचारों को साझा करने और हमारे ज्ञान के बारे में जानने के लिए आए। लेकिन फिर कहीं कुछ गलत हो गया। उस समय को देखें। 1300 साल पहले नालंदा की नौ मंजिला पुस्तकालय थी। इसे धरमगंज कहा जाता था। यह पांडुलिपियों का कोष था जिसने तब गणित, खगोल विज्ञान और दर्शन को आगे बढ़ाया। आक्रमण के दो दौर आए - पहले इस्लामी आक्रमण और फिर ब्रिटिश उपनिवेशवाद। इससे भारत के ज्ञान विरासत को झटका लगा। 1190 के आसपास बख्तियार खिलजी ने क्रूरता और बर्बरता का प्रदर्शन किया। उसने सभ्यता के किसी भी लोकाचार के खिलाफ काम किया। और तब, केवल पुस्तकें ही नहीं जलाई गईं। उसने बौद्ध भिक्षुओं को मार डाला, स्तूपों को तोड़ दिया और अपने हिसाब से उसने भारत की आत्मा को नष्ट कर दिया - यह महसूस किए बिना कि भारत की आत्मा अविनाशी है। यह आग कई वर्षों तक भड़की रही। इसने 9 मिलियन - 90 लाख - पुस्तकों और ग्रंथों को निगल लिया। हमारा इतिहास राख में बदल गया। नालंदा एक विचारधारा से कहीं आगे था; यह पूरी मानवता के लाभ के लिए ज्ञान का एक जीवंत, गतिशील मंदिर था। नौ मंजिलों वाले पुस्तकालय ताम्र पत्र पांडुलिपियों से भरे हुए थे... तीन महीने तक, आग की लपटें उन्हें जलाती रही। चारों ओर घना धुआं छाया रहा।’
श्री धनखड़ ने राजनीतिक तापमान कम करने और संवाद में शामिल होने का आग्रह करते हुए, कहा, “मित्रों, राष्ट्रीय मानसिकता में भी बदलाव की आवश्यकता है। सबसे पहले मैं राजनीतिक प्रणाली के बारे में बात करता हूं। हमने एक-दूसरे से मतभेद करने की आदत बना ली है। कोई भी अच्छा विचार किसी और से आ रहा है, मुझसे नहीं, तो वह गलत है। क्योंकि मैं अपने विचार की सर्वोच्चता में विश्वास करता हूं। इस प्रक्रिया में मैं अपने वैदिक दर्शन अनंतवाद की बलि चढ़ा रहा हूं। अभिव्यक्ति होनी चाहिए, वाद-विवाद होना चाहिए, अभिव्यक्ति होनी चाहिए, संवाद होना चाहिए। ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। हमें उस दिशा में आगे बढ़ना होगा। हम राजनीतिक तापमान बढ़ाने के लिए बहुत उत्सुक हैं। जलवायु परिवर्तन हमारे लिए ऐसा कर रहा है। हम सभी चिंतित हैं। हमें अपने धैर्य को क्यों खोना चाहिए? हम अपने सभ्यतागत, आध्यात्मिक सार से दूर होकर अधीरता से क्यों कार्य करें? मैं राजनीतिक नभमंडल, राजनीति के अग्रणी व्यक्तियों से अपील करता हूं। कृपया राजनीति के तापमान को कम करें। टकराव के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। संवाद होना चाहिए। व्यवधान और अशांति वे तंत्र नहीं हैं जिन्हें संविधान सभा में संविधान निर्माताओं ने हमें सिखाया है । अब समय आ गया है कि भारत उन्नति की ओर अग्रसर हो। विश्व हमारी ओर देख रहा है। चुनौतियां तो होंगी ही, क्योंकि भारत इस समय दुनिया का सबसे महत्वाकांक्षी राष्ट्र है। पिछले दशक के अभूतपूर्व विकास के परिणामस्वरूप, हमारे लिए ये चुनौतियां और भी जटिल हो जाएंगी, यदि हमारे राजनेता राष्ट्रीय हित और राष्ट्रीय विकास पर ध्यान देने की आवश्यकता हमेशा महसूस नहीं करते।”
शिक्षा के व्यावसायीकरण पर चिंता व्यक्त करते हुए श्री धनखड़ ने कहा, “एक समय था जब शिक्षा और स्वास्थ्य उन लोगों के लिए साधन थे जिनके पास समाज को वापस देने के लिए पर्याप्त संसाधन थे। उन्होंने कभी नहीं सोचा कि ये लाभ कमाने वाले उद्यम हैं। स्वास्थ्य और शिक्षा में उनके उद्यम हमारी सदियों पुरानी ज्ञान से प्रेरित थे - हमें समाज को उसके योग्य नागरिकों के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करने के लिए समाज के विकास में वापस योगदान देना चाहिए और इसलिए प्रयास होना चाहिए, हमें शिक्षा के वस्तुकरण और व्यावसायीकरण से प्रेरित नहीं होना चाहिए। हमारी शिक्षा भारत की पारंपरिक गुरुकुल प्रणाली के अनुरूप होनी चाहिए, जिसे भारतीय संविधान में 22 लघु चित्रों में से एक में स्थान दिया गया है और इसे प्राथमिकता दी गई है। हमें ज्ञान प्राप्त करने के अलावा बच्चों के चरित्र विकास पर भी जोर देना चाहिए, क्योंकि तभी ज्ञान प्राप्ति में गुणवत्ता और अत्याधुनिकता आएगी। सेवा के रूप में शिक्षा वर्तमान व्यावसायिक मॉडल के साथ असंगत है जो तेजी से उभर रहा है और इसलिए मैं उद्योगपतियों से मानसिकता बदलने की अपील करता हूं। भारत में हमेशा ही परोपकार का अस्तित्व रहा है। मैं उद्योगपतियों से अपील करता हूं-बैलेंस शीट की अवधारणा से बहुत दूर, ग्रीन फील्ड परियोजनाओं के रूप में वैश्विक प्रतिष्ठा वाले संस्थानों में संयोजन के द्वारा अपने सीएसआर संसाधनों को एकत्रित करें।’
विश्वविद्यालय में पूर्व छात्रों के योगदान के महत्व पर जोर देते हुए उन्होंने कहा, “यदि आप विश्व भर में, दुनिया के विकसित लोकतंत्रों में देखें - तो आप पाएंगे कि विश्वविद्यालयों की एकमुश्त निधियां अरबों डॉलर में हैं। एक विश्वविद्यालय का कोष 50 अरब डॉलर से भी अधिक है। माननीय कुलपति महोदय, एक शुरुआत करें। इस संस्थान के प्रत्येक पूर्व छात्र को इस कोष में योगदान देना चाहिए। बच्चों, राशि मायने नहीं रखती - भावना मायने रखती है। आप देखेंगे कि आने वाले वर्षों में यह कितना प्रभावशाली होगा। न केवल निधि बढ़ेगी, बल्कि इससे पूर्व छात्र वर्ग और मातृ संस्था के बीच एक सूची का भी निर्माण होगा। यह एक बड़ा कदम होगा। याद रखें, उठाया गया कदम महान होता है - और इसीलिए, 20 जुलाई, 1969 को, नील आर्मस्ट्रांग, जो चंद्रमा पर कदम रखने वाले पहले व्यक्ति थे, ने कहा था: "उनका एक छोटा कदम, मानवता के लिए एक बड़ी छलांग है।" इसलिए, पूर्व छात्रों के लिए, यह एक छोटा कदम हो सकता है - लेकिन कुल मिलाकर, परिणाम अत्यधिक लाभकारी होंगे।