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Current News / वायरल होते प्राइवेट पोल, खुलकर सामने आता जातिवाद-वर्गवाद..!!

arth-skin-and-fitness वायरल होते प्राइवेट पोल, खुलकर सामने आता जातिवाद-वर्गवाद..!!
कौशल मूंदड़ा March 17, 2023 03:47 PM IST

बरसों हो गए जातिवाद से लड़ते लड़ते। संविधान भी थक गया जातिवाद को खत्म करने का कहते-कहते। सार्वजनिक रूप से सिद्धांतों की बातें खूब की जाती हैं, लेकिन जैसे ही कहीं लाभ-हानि की बात आती है, सभी को अपनी जाति से समर्थन की आवश्यकता नजर आती है और यह स्थिति इन दिनों लगातार खुलकर सामने आ रही है। और इस स्थिति का वाहक पेपरलैस मीडिया ज्यादा बन रहा है। 

 

देखा जा सकता है कि आगामी एक साल के दौरान जहां भी चुनाव हैं, वहां पर पेपरलैस माध्यमों ने अपना मोर्चा खोल लिया है। चाहे वह निजी विचारों के रूप में हो या सार्वजनिक रायशुमारी के रूप में, सर्वाधिक जोर ऑनलाइन सर्वे पर हो रहा है। कोई विधायकी के उम्मीदवारों पर ऑनलाइन सर्वे करवा रहा है तो कोई मुख्यमंत्री के उम्मीदवारों पर रायशुमारी कर रहा है। 

 

हालांकि, ऑनलाइन पोल पहले भी होते रहे हैं और इनसे किसी को कोई गुरेज नहीं है। किसी उत्पाद को लेकर कम्पनियां ऐसे ऑनलाइन पोल कराती रहती है। आजकल तो रेस्त्रां भी अपनी ऑनलाइन रेटिंग कराते हैं, बाकायदा अपने यहां आने वाले ग्राहकों के विदा होने से पहले उन्हें रेटिंग देने के लिए मीठा आग्रह भी करते हैं। ऐसे में ऑनलाइन पोल किसी भी विषय पर किए जा सकते हैं और निजी क्षेत्र के पोर्टल्स के लिए तो यह रामबाण की तरह हैं क्योंकि इससे उनके यहां दर्शकों का आवागमन बढ़ता है जिसे इनकी भाषा में व्यूअर्स ट्रैफिक कहते हैं। 

 

पेपरलैस मीडिया की इस दौड़ में पेपर वाला मीडिया भी शामिल होता नजर आ रहा है। पेपरलैस मीडिया के सर्वेक्षणों के परिणाम पेपर वाले मीडिया के लिए भी सुर्खियां बनते नजर आ रहे हैं। गौर करने वाली बात यह है कि आज के समय में जितनी गहमागहमी एग्जिट पोल की नहीं होती, उससे अधिक इन ऑनलाइन पोल से हो रही है। इन ऑनलाइन सर्वेक्षणों ने राजनीतिक गलियारों में तो गहमागहमी बढ़ाई ही है, इससे ज्यादा गर्मी सामाजिक और जातीय गलियारों में बढ़ी नजर आ रही है। विधानसभा की उम्मीदवारी को लेकर इन ऑनलाइन पोल के लिए लिंक वायरल होने के बाद जो बातें देखी गईं उनमें सर्वाधिक गौर करने वाली बात जातिवाद और वर्गवाद की है। 

 

विभिन्न वाट्सएप समूहों में राजनीतिक, सामाजिक, व्यापारिक आदि वर्गों वाले अलग-अलग प्रकृति के समूह शामिल होते हैं। इन ऑनलाइन पोल पर वोटिंग करने की अपील समाज स्तर पर भी की जाने लगी है। कोई सामान्य वर्ग में आने वाली जातियों का तर्क देते हुए उन जाति-समाजों के लोगों से वोट की अपील करता है तो कोई अन्य वर्ग के लिए। खास तौर से जहां पर सीट आरक्षित नहीं है वहां पर तो सामान्य वर्ग में आने वाली अलग-अलग जातियों के चेहरों की भी उम्मीदवारी की अपीलों का दौर नजर आता है। इनसे हटकर कहीं-कहीं कार्यक्षेत्र का उपयोग भी अपीलों में किया जा रहा है। कोई व्यापारी है तो वह व्यापार वर्ग से समर्थन मांगता नजर आ रहा है तो कोई होटेलियर है तो होटल-रेस्त्रां वालों से समर्थन मांगता नजर आता है। अनारक्षित सीट पर अन्य वर्गों की प्रत्याशियों की दौड़ भी शामिल हो जाती है और अलग-अलग वर्ग के प्रत्याशी अपने-अपने वर्गों के समूहों में ‘अपने समाज के आदमी’ के लिए समर्थन मांगते नजर आते हैं। 

 

राजस्थान, उत्तरप्रदेश में ऐसे पेपरलैस मीडिया के सर्वेक्षणों में ऐसी बातें देखने में आई हैं। वेब पोर्टल द्वारा कराये जाने वाले ऑनलाइन सर्वे उन पोर्टल्स का निहायत निजी और यूं कहें कि अपनी पहुंच बढ़ाने का मामला कहा जा सकता है ताकि उन्हें प्रसिद्धि मिले और भविष्य में वाणिज्यिक लाभ की संभावना भी बने। भले ही वे यह कह सकते हैं कि उम्मीदवारी का सर्वे किया जाना चाहिए। लोकतंत्र भी यही कहता है। लेकिन, सोशल मीडिया पर जो खुलकर जातिवाद-वर्गवाद सामने आता दिखाई पड़ता है उससे भारतीय लोकतंत्र की चिंता बढ़ना भी लाजिमी है। एक तरफ संविधान, चुनाव आयोग और विभिन्न राजनीतिक दल जोर-शोर से जातिवाद और वर्गवाद से ऊपर उठने का आह्वान करते नहीं थकते, दूसरी तरफ ठेठ निचले स्थानीय स्तर पर यही सबकुछ होते दिखाई देता है। 

 

हाल ही उदयपुर में भी देखने में आया। पिछले दिनों दो प्रमुख दलों के संभावित विधायक उम्मीदवारों को लेकर निजी पोर्टल्स द्वारा ऑनलाइन सर्वेक्षण लिंक्स वायरल किये गए। निजी पोर्टल्स द्वारा उनके स्वयं के प्रयासों से ज्यादा उम्मीदवारों के सामाजिक व व्यापारिक समर्थकों ने उन लिंक्स को सामाजिक वाट्सएप समूहों में वायरल किया। यहां तक तो ठीक माना जा सकता है लेकिन सामाजिक, व्यापारिक और वर्ग विशेष समूहों में अपने अपने समाज और वर्ग के उम्मीदवारों के समर्थन में अपीलों ने इन सर्वेक्षणों की आड़ में जाति-वर्ग की राजनीति को बढ़ावा देने जैसा दृश्य खड़ा कर दिया।

 

हालांकि, वाट्सएप समूहों में कई सुधिजनों के समूह भी हैं जहां वर्गीकरण वाली दाल गलती नजर नहीं आती। उन समूहों में वर्गवाद और जातिवाद से हटकर कर्मवाद पर चर्चा होती है। कुछ यह भी राय व्यक्त करते हैं कि ऐसे सर्वे से कुछ फर्क पड़ने वाला नहीं है। लेकिन, जिनका नाम इस बहाने चलता है, उन्हें कुछ सुकून जरूर महसूस होता होगा। 

 

बरसों से राजनीतिक क्षेत्र में कार्य कर रहे वरिष्ठ भी इन ऑनलाइन सर्वेक्षणों को अनधिकृत और प्रोपोगेंडा करार देते हुए कहते हैं कि उम्मीदवारी चंद लोगों की इस तरह की वोटिंग से तय नहीं हो जाती। वे इस बात पर चिंता जता रहे हैं कि ऐसे ओपिनियन पोल में लोग जाति-समाज का आधार बनाकर भी वोट की अपील कर रहे हैं। यह सोच न केवल एक शहर बल्कि पूरे देश के लिए कतई उचित नहीं हो सकती। वे कहते हैं कि चुनाव आचार संहिता से पहले तक ऐसे सर्वे खूब आते हैं, जिस दिन चुनाव आचार संहिता लगती है, यह सारी चुनावी चकल्लस अपने-आप बंद हो जाती है। 

 

वरिष्ठ समाजशास्त्री प्रोफेसर पीसी जैन कहते हैं कि आज न केवल युवा पीढ़ी बल्कि वृद्धजन और बच्चे, महिलाएं सभी सोशल मीडिया से जुड़े हुए हैं। सोशल मीडिया व्यक्ति की सोचने और समझने की क्षमता को प्रभावित भी कर रहा है। कई ऐसे मुद्दे है जिन पर सोशल मीडिया की सक्रियता के कारण सामाजिक वैमनस्यता की स्थिति भी पैदा हो रही है। लोकतात्रिक व्यवस्था में किसी जाति, वर्ग, धर्म, लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता, लेकिन सोशल मीडिया कहीं न कहीं ऐसी भूमिका का निर्वहन कर रहा है जिससे जातिवाद, वर्गवाद और सामाजिक आधारों पर भेदभाव पनप रहा है।

 

सोशल मीडिया के माध्यम से अपने आपको श्रेष्ठ साबित करने के लिये समर्थन मांगा जाता है और श्रेष्ठता को अलग रखकर जाति, धर्म व क्षेत्र के आधार पर मत मांगे जाते हैं और इसी आधार पर यह निर्णय लिया जाता है कि श्रेष्ठ कौन है या विजेता कौन है।  वे कहते हैं कि निर्णय की इस प्रकार की प्रक्रिया समाज के लिये काफी घातक है। जहां व्यक्ति के गुणों व योग्यताओं को दर-किनार कर प्रभावी कारकों व व्यक्तियों के मतों के आधार पर निर्णय लिया जाता है वह पूर्णतया अनुचित है। टेलीविजन पर भी ऐसे रियलिटी शो होते हैं जिनमें जनता से आह्वान किया जाता है कि वे उम्मीदवारों के पक्ष में मत करें ताकि इन्हीं मतों के आधार पर निर्णय किया जा सके। इस हेतु कभी कभी ऐसे ऐसे कारकों को सामने रख दिया जाता है जिनमें जाति, धर्म, क्षेत्र या वर्ग-विशेष की प्रभावशीलता शामिल होती है। उनमें किसी न किसी आधार पर व्यक्ति प्रभावित हो जाता है और अयोग्य व्यक्ति को मत दे देता है। उससे सम्पूर्ण समाज प्रभावित होता है। ऐस दुष्प्रभावों से बचने के लिये सोशल मीडिया पर कुछ न कुछ नियंत्रण किया जाना आवश्यक जान पड़ता है। 

 

वरिष्ठ अधिवक्ता अशोक सिंघवी कहते हैं कि अव्वल तो इस तरह के निजी पोर्टल्स के ओपिनियन पोल कोई मान्यता नहीं रखते, इन्हें एक तरह से वाणिज्यिक गतिविधि ही कहा जा सकता है, दूसरे इन पोल्स की वजह से किसी की उम्मीदवारी तय नहीं होती। लेकिन, हाल ही जो दृश्य देखने में आया है कि स्वयंभू उम्मीदवारी जताने वाले शख्स अपने नाम को ऊपर बनाए रखने के लिए जाति और वर्ग को बैसाखी बनाकर सहयोग मांग रहे हैं, जबकि यदि वास्तविकता में किसी को उम्मीदवार के रूप में देखा जाना चाहिए तो उसकी सर्वमान्यता होनी चाहिए और वह जनता स्वतः काम देखकर तय कर लेती है। जाति और वर्ग के आधार पर अपनी छवि को बड़ा करने वाले यदि कल जनप्रतिनिधि बन जाते हैं तो क्या वे किसी जाति या वर्ग विशेष के लिए ही कार्य करेंगे? राजनीतिक क्षेत्र के लोगों को जवाबदेही और शुचिता बनाए रखनी चाहिए। राजनीतिक क्षेत्र में सत्ता की राह को चुनाव तय करते हैं जहां सारी जनता का मत आपको सत्ता का अधिकारी बनाता है। चुनाव प्रक्रिया के अतिरिक्त किसी प्रकार का मत संग्रहण वास्तविक चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित करने का कारक बन सकता है। इससे लोकतांत्रिक व्यवस्था के कमजोर होने का अंदेशा बढ़ता है क्योंकि यह मत संग्रहण क्षेत्रवाद, जातिवाद, वर्गवाद और राजनीतिक मठवाद को स्थापित करने जैसा है। ऐसे ओपिनियन पोल देश और समाज को विभाजित करने का कार्य कर रहे हैं। 

 

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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