
मेवाड़ के राजा आराध्य देव एकलिंग जी मन्दिर की कहानी !
मेवाड़ महाराणाओ के आराध्य देव एकलिंग जी मेवाड़ के अधिपति कहलाते हैं और महाराणा उनके दीवान कहलाते हैं। सम्पूर्ण भारत में शायद ही ऐसा कोई राज्य होगा जहां के राजा शिव भगवान हो। इसी कारण से सभी ताम्र पत्र, शिलालेख ,पट्टे ,परवानों में दीवान जी आदेशात लिखा गया है।भगवान शिव श्री एकलिंग महादेव रूप में मेवाड़ राज्य के महाराणाओं तथा अन्य राजपूतो के प्रमुख आराध्य देव रहे हैं।मान्यता है कि यहाँ में राजा तो उनके प्रतिनिधि मात्र रूप से शासन किया करते हैं। इसी कारण उदयपुर के महाराणा को दीवाण जी कहा जाता है।ये राजा किसी भी युद्ध पर जाने से पहले एकलिंग जी की पूजा अर्चना कर उनसे आशीष अवश्य लिया करते थे।
इतिहास बताता है कि एकलिंग जी को ही को साक्षी मानकर मेवाड़ के राणाओं ने अनेक बार यहाँ ऐतिहासिक महत्व के प्रण लिए थे। यहाँ के महाराणा प्रताप के जीवन में अनेक विपत्तियाँ आईं, किन्तु उन्होंने उन विपत्तियों का डटकर सामना किया। किन्तु जब एक बार उनका साहस टूटने को हुआ था, तब उन्होंने अकबर के दरबार में उपस्थित रहकर भी अपने गौरव की रक्षा करने वाले बीकानेर के राजा पृथ्वी राज को, उद्बोधन और वीरोचित प्रेरणा से सराबोर पत्र का उत्तर दिया। इस उत्तर में कुछ विशेष वाक्यांश के शब्द आज भी याद किये जाते हैं:
"तुरुक कहासी मुखपतौ, इणतण सूं इकलिंग, ऊगै जांही ऊगसी प्राची बीच पतंग।"
महाराणा शय्या त्याग के बाद सबसे पहले एकलिंग चित्र पट दर्शन करते थे । राजकीय काम काज में श्री एकलिंग जी लिखते थे। हाथी की सवारी में पहले एकलिंग जी का चित्रपट हाथी पर सोने के नाग के नीचे रहता था। कुछ घोड़े भी होते थे जिन पर सवारी नहीं की जाती थी। ये एकलिंग जी के मान के लिए रहते थे।
यहाँ मन्दिर परिसर के बाहर मन्दिर न्यास द्वारा स्थापित एक लेख के अनुसार डूंगरपुर राज्य की ओर से मूल बाणलिंग के इंद्रसागर में प्रवाहित किए जाने पर वर्तमान चतुर्मुखी लिंग की स्थापना की गई थी।एकलिंग जी का मंदिर उदयपुर से 22 किलोमीटर दूर जिसको कैलाश पुरी के नाम से जाना जाता है ,स्थित है। प्राचीन परंपरा अनुसार महाराणा मंदिर में प्रवेश द्वार पर पहुंचते ही सोने की छड़ी ले लेते। सावन में और गर्मी की ऋतू में वावडी से चांदी के घड़े में जल लाकर एकलिंग नाथ की जलेरी में जल अर्पित करते।
भगवान के भोग के लिए महाराणा भूपालसिह जी के काल तक 1 लाख रुपए वार्षिक तय किया हुआ था और कभी खास मौकों पर महाराणा विशेष प्रबंध करते।बिना कोताही के भोग पुजन आदि के लिए कुलगुरु के साथ साथ एक नायब हाकिम प्रतिदिन निरक्षण करते।
एकलिंग जी कि पुजा के लिए चार ब्रह्मचारी और एक गोस्वामी जी है। यहाँ महाराणा के कुल गुरू वैदिक तथा तान्त्रिक पद्धति से पूजा करते है। ऐसी पुजा भारत में कम स्थानो पर होती है। बड़े बड़े तान्त्रिक और वेद ज्ञाताओ ने इस पूजा पद्धति को माना है।
यहां पर दो प्राचीन तालाब है एक इन्द्र सरोवर और उदयपुर जाते समय बाघेला है। महाराणा मोकल ने अपने भाई भाग सिंह के नाम पर इसका निर्माण करवाया। इंद्र सरोवर के बारे में एक किवदंती है कि इंद्र को वृत्रासुर के मारने की ब्रह्म से ज्वार आने लगा तब उससे किसी प्रकार मुक्ति न देखकर बृहस्पति ने प्रश्न किया। कथा अनुसार ब्रह्म हत्या के प्रायश्चित की निवृत्ति के लिए एकलिंग जी की आराधना के लिए इंद्र ने पर्णकुटी बनाकर पास में एक तालाब खोजा। उसी को इंद्र सरोवर कहा गया है। इतना ही नहीं प्रसन्न होने पर इंद्र ने तालाब को फल दाता करने की प्रार्थना की तत्पश्चात उस तालाब का नाम इंद्र सरोवर नाम रख संपूर्ण फल देने वाले का गौरव एकलिंग जी ने प्रदान किया।

एकलिंग जी से नजदीक ही तक्षक कुंड नागदा में बना हुआ है। एकलिंग जी माहत्म्य में लिखा हुआ है कि जो भी इस कुंड के कक्षा कुंड में स्नान करता है ,उसे सर्पदंश का भय नहीं रहता है और आज तक इस क्षेत्र में कभी किसी मनुष्य की सर्पदंश से मृत्यु नहीं हुई है।
मंदिर करीब 50 फुट ऊंचा है। इसका व्यास 60 फुट के लगभग है। यह शिखर बंद ,सुंदर दृढ़ और सफेद पत्थरों से बना है। प्रारंभ में इस को किसने बनाया इसका कोई निर्माण उल्लेख नहीं मिलता है। लेकिन सर्वप्रथम परंतु जनश्रुति के अनुसार इसका निर्माण बप्पा रावल ने आठवीं शताब्दी के लगभग करवाया। पहले मूर्ति लिंग के आकार की होती थी। आजकल मूर्ति काले पत्थर निर्मित चतुर्मुखी है जिसकी प्रतिष्ठा महाराणा रायमल ने की थी।
बप्पा रावल के शाषण के कुछ वर्षों बाद यह मन्दिर तोड़ दिया गया, जिसे बाद में उदयपुर के ही महाराणा मोकल ने इसका जीर्णोद्धार करवाया तथा वर्तमान मंदिर के नए स्वरूप का संपूर्ण श्रेय महाराणा रायमल को है। उक्त मंदिर की काले संगमरमर से निर्मित महादेव की चतुर्मुखी प्रतिमा की स्थापना महाराणा रायमल द्वारा की गई थी।मंदिर के दक्षिणी द्वार के समक्ष एक ताखे में महाराणा रायमल संबंधी १०० श्लोकों का एक प्रशस्तिपद लगा हुआ है।
इतिहासकार : जोगेन्द्र नाथ पुरोहित
शोध :दिनेश भट्ट (न्यूज़एजेंसीइंडिया.कॉम)
Email:erdineshbhatt@gmail.com


