भीलों का सबसे महत्वपूर्ण त्यौहार 5 दिनों तक चलने वाला बेणेश्वर मेला (आदिवासियों का कुंभ है,जो 5000 साल पुराना माना जाता है) जो जनवरी या फरवरी के दौरान डूंगरपुर जिले के बेणेश्वर धाम (भगवान शिव का लगभग 600 साल पुराना मंदिर) मे पवित्र नदियों (सोम, माही) के संगम पर मनाया जाता है । मेला हिंदू कैलेंडर के अनुसार आयोजित किया जाता है, जो माघ शुक्ल एकादशी से शुरु होकर माघ शुक्ल पूर्णिमा तक चलता है ।
मूल रुप से यह मेला पूरी तरह से भगवान शिव को समर्पित था, लेकिन बाद में महान संत मावजी महाराज (जिनको भगवान विष्णु के अवतारों में से एक के रुप में माना जाता हैं) के भक्तों द्वारा भगवान विष्णु को भी समर्पित कर दिया गया। मावजी महाराज ने इस क्षेत्र में लंबे समय तक तपस्या की थी। ऐसा माना जाता है कि बचपन से ही लोग उन के संत स्वभाव और चमत्कारों के कारण उन का सम्मान करने लगे थे। यह भी माना जाता है कि, उन्होंने 12 साल की उम्र में घर छोड़ सबला के पास सुनैया पहाड़ियों की गुफा में 12 साल तक तपस्या की और
फिर माघ शुक्ल एकादशी पर दर्शन देते हुए बेणेश्वर में फिर से प्रकट हुए ।
यह न केवल राजस्थान बल्कि पड़ोसी राज्यों जैसे मध्यप्रदेश और गुजरात से भी बड़ी संख्या में आदिवासियों को आकर्षित करता है । यह भीलों का एक वार्षिक मिलन है, जो भगवान शिव और विष्णु को श्रद्धांजलि देने के लिए आते है और हरिद्वार, प्रयाग और पुष्कर जैसे अन्य स्थानों अस्थियों को विसर्जित करने सहित अपने मृतकों का श्राद्ध भी करते हैं । भक्त ब्रहमा मंदिर, गायत्री मंदिर, वाल्मीकि मंदिर, शबरी मंदिर, हनुमान मंदिर आदि सहित आसपास के कई अन्य मंदिरों में भी जाते हैं ।
ये कहना गलत नहीं होगा कि भील जनजाति हमेशा सनातन परंपरा की वाहक रक्षक रही है। भील समुदाय अपने आपको भगवान शिव का वंशज मानते है। रामायण के रचियता महर्षि वाल्मीकि भील थे । माता शबरी भील की प्रभु राम के प्रति भक्ति और प्रभु राम को उनसे स्नेह, उनके झूठे बेर खाना कौन भूल सकता है। प्रभु राम की निषाद राज से मित्रता एक मिसाल है । भारत और नेपाल की हिन्दु परम्परा में व्यापक रुप से प्रयुक्त विक्रम संवत की शुरुआत भी महान भील राजा विक्रमादित्य (जो भील राजा गर्दभितत के पुत्र थे) ने शकों के उपर अपनी जीत के बाद शुरु किया था । उन्होंने अनेक मंदिर बनाये जैसे कि शनि/नवग्रहमंदिर, उज्जैन, चिन्तामणि गणेश मंदिर, उज्जैन, हरसिद्धि मंदिर, उज्जैन, बाबा महाकाल मंदिर, उज्जैन आदि ।
अन्य भील राजाओं ने भी अनेक मंदिर बनवायें जैसे कि भादवा माता मंदिर नीमच (मध्य प्रदेश), गुजरात स्थित शबरी धाम, उदयपुर स्थित अंबा माता, भगवान गेपरनाथ मंदिर, कोटा (राजस्थान) वगैरा । भील महादेव, पार्वती (उनकी पत्नी), गणेश, हनुमान, भेरों और माताजी (देवी काली), की पूजा करते हैं कई अन्य देवताओं (बागदेव, भैरव देव, भाटी आदि) की भी पूजा की जाती है । भील होली,नवरात्री, दशहरा, धनतेरस, दिवाली और राखी वगैरा के त्यौहार मनाते हैं । उनकी शादी में दूल्हा और दुल्हन पवित्र अग्नि के फेरे लेते हैं । भील लोग गौत्र, ग्रामदेव,कुलदेवी को मानते है। और भी अनेकों समानतायें है, जैसे तिलक लगाना, मंदिर में नारियल फोड़ना, प्रसाद बाटना, श्राद करना, अस्थि विसर्जन आदि।
मध्य युग में जब बाहरी आकांताओं ने भारत की राजसता को हथियाने की कोशिश की तब भील राजाओं, भील सरदारों ने विदेशी आक्रमणकारियों से धर्म की रक्षा के लिये मजबुत टक्कर ली । राणा पुन्जा भील का बलिदान कौन भुल सकता है। हर-हर महादेव के नारे का उद्घोष करते हुए भगवा झंडे के नीचे उन्होंने महाराणा प्रताप के समर्थन में अकबर से जमकर लोहा लिया। ऐसे और भी हजारों उदारण है—लिखने लगें तो पूरी किताब लिख सकते हैं । पर आज कुछ लोग, शायद चर्च, इस्लामिक कटरपंथियों और विदेशी ताकतों के प्रभाव में भीलों को सनातन के खिलाफ भड़काने कि भरपूर कोशिश कर रहे है। क्या ये लोग अपने राजनैतिक/आर्थिक फायदे के लिये समाज, धर्म और देश को बांटकर भीलों का ही नुकासान नहीं कर रहें, आज जब आजादी के 75 वर्ष बाद विकास का फायदा आदिवासियों तक पहुॅचने लगा है- वो रोजगार, व्यापार और शिक्षा में आगे बढ़ रहे हैं तो कौन उनको बेतुके, तर्कविहिन, भावनात्मक मुद्दों में उलझाना चाहता है और क्यो? पर ऐसे लोगों कि साजिश कामयाब नहीं होगी । भीलों को समझाना होगा कि समाज का उत्थान केवल शिक्षा, रोजगार और व्यापार पर ध्यान केन्द्रित करने से ही होगा ।
(Written by Raju M. Solanki, State President, Jai AdiwasiYuva Shakti, Madhya Pradesh).