ऐसा नहीं था कि बाबा साहेब को फिल्म इंडस्ट्री पूरी तरह ही भूल गई थी, वो नजर तो आते थे, लेकिन अक्सर सरकारी दफ्तरों की दीवारों पर या थानों में, गांधीजी, नेहरू जी के बगल में कहीं टंगे हुए. लेकिन शायद पंडित नेहरू से ही उनकी अदावत थी कि ना तो उन्हें कांग्रेस से टिकट दिया गया और ना ही उन्हें जीतने भी दिया गया. उनको भारत रत्न भी 1990 में दिया गया था. ऐसे में फिल्मों में उनकी वाहवाही होने देने का तो सवाल ही नहीं उठता. हिंदी फिल्मों में तो उन्हें शुरू से ही नजरअंदाज कर दिया गया था.
हालांकि दलित विषयों पर फिल्में तो आजादी से पहले से बनती आ रही थीं. लेकिन अछूत कन्या, सुजाता और बाद में अंकुर जैसी फिल्मों में भी दलित विषयों को गांधीवादी सुधारों से ही जोड़ा गया, बाबा साहेब के विचारों से नहीं. नेहरू के बाद शास्त्रीजी और इंदिरा गांधी पीएम बने, जो नेहरूजी और बाबा साहेब के रिश्तों को करीबी से जानते थे. राजीव गांधी ने भी काफी हद तक अम्बेडकर से दूरी बनाए रखी.
1989 में उनका कार्यकाल खत्म हुआ और 1990 में वीपी सिंह की सरकार में बाबा साहेब को भारत रत्न दिया गया. इससे पहले वह किसी राजनीतिक पार्टी एजेंडे में वो उस तरह शामिल नहीं थे, जैसे कांग्रेस के गांधीजी व नेहरू थे. श्यामा प्रसाद मुखर्जी से उनके रिश्ते जनसंघ में रहते अच्छे थे, एक बार बाबा साहेब लाल किले में वीर सावरकर का मुकदमा भी पत्नी के साथ देखने गए थे, दत्तो पंत ठेंगड़ी भी उनके इलेक्शन एजेंट एक लोकसभा चुनाव में रहे थे. लेकिन उन दिनों जनसंघ का वैसा वजूद नहीं था, जैसा आज बीजेपी का है.
लेकिन बीजेपी ने शुरुआत से ही समरसता से जोड़कर भीमराव अम्बेडकर को अपना लिया था, गांधीवाद समाजवाद को भी. समय भी बदल रहा था, जो युवा आरक्षण लेकर सरकार और समाज के रसूख वाले पदों पर पहुंचे थे, उनको अम्बेडकर का महत्व समझ आने लगा था. शायद उत्तर भारत के मुख्यधारा विमर्श में डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर की महत्ता बहुजन समाज पार्टी के उभार के साथ शुरू हुई थी, जबकि डीएमके जैसी पार्टियां इसमें थोड़ी आगे थीं लेकिन उनका प्रभाव क्षेत्र छोटा था. धीरे धीरे बाकी पार्टियों में भी अम्बेडकर की स्वीकार्यता शुरू हुई. मंडल आंदोलन के बाद तो अम्बेडकर को नजरअंदाज करना कांग्रेस के लिए भी मुश्किल हो गया था.
इसका सीधा असर फिल्मी दुनियां पर भी पड़ा, अब तक मेनस्ट्रीम सिनेमा में 12 फिल्में डॉ. अम्बेडकर के जीवन पर बन चुकी हैं. जिनमें से मराठी सिनेमा सबसे आगे है. कुल 7 फिल्में मराठी में बनी हैं. 3 कन्नड़ में, एक मराठी में और एक इंगलिश में. लेकिन हिंदी, तमिल या मलयालम सिनेमा में दलित विषयों को लेकर फिल्में बनाने की बाढ़ सी आ गई है.
बाबा साहेब पर मराठी फिल्म ‘भीम गर्जना’ को 1990 में विजय पवार ने बनाया था. ये उन पर बनी पहली मूवी थी, जिसमें डॉ. अम्बेडकर का रोल अभिनेता कृष्णानंद ने किया था. उनके बाल रूप पर भी मराठी और कन्नड़ में फिल्में बनी हैं. सबसे पहले कन्नड़ में 1991 में ‘बालक अम्बेडकर’ नाम से एक मूवी बनी, जिसे बासवराज केस्थुर ने निर्देशित किया था. चिरंजीवी विनय ने उनके बाल रूप का रोल किया था. मराठी में ‘बाल भीमराव’ को बनाया था प्रकाश जाधव ने, 2018 में आई इस मूवी में मोहन जोशी और विक्रम गोखले जैसे नामी अभिनेता भी थे. इससे पहले प्रकाश जाधव ने डॉ. अम्बेडकर की पहली पत्नी रमाबाई अम्बेडकर पर भी 2011 में एक मराठी मूवी बनाई थी, नाम था ‘रमाबाई भीमराव अम्बेडकर’, रमाबाई का रोल निशा पारुलेकर ने किया था.
युगपुरुष बाबा साहेब अम्बेडकर को मराठी में 1993 में शशिकांत नालावडे ने बनाया. हिंदी इंगलिश दोनों भाषाओं में मिलकर बनी जब्बार पटेल की मूवी ज्यादा चर्चा में रहती है, इसका नाम था, ‘डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर: द अनटोल्ड ट्रुथ’. 2000 में बनी इस मूवी में बाबा साहेब का किरदार प्रसिद्ध मलयालम सुपरस्टार ममूटी ने किया था और कई भाषाओं में इसे डब किया जा चुका है. बाजपेयी सरकार में इसे फिल्म डिवीजन ने प्रोडयूस किया था. कन्नड़ में 2005 में बनी ‘बीआर अम्बेडकर’ को कन्नड़ फिल्मों के कई अवॉर्ड मिले तो बाबा साहेब की 125वीं जयंती पर 2016 में रिलीज हुई कन्नड़ की मूवी ‘रमाबाई’ को भी काफी सराहा गया. 2016 में ही मराठी में बनी ‘बोले इंडिया जय भीम’ भी काफी चर्चा में रही.
कुछ फिल्मों में डॉ. अम्बेडकर से जुड़े गानों को भी बनाने की कोशिश की गई है, ताकि वो जन जन के होठों पर आ सकें. हिंदी की ‘शूद्रा द राइजिंग’ का गाना ‘जय जय भीम’ गाना हो या फिर मराठी मूवी जोशी की काम्बले का गीत ‘भीमरावंचा जय जयकार’. आने वाली मूवीज में भी म्यूजिक पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है. ‘सैराट’ को हिट करवाने में उसके गीतों का काफी योगदान रहा है.
पिछली साल गोवा में होने वाले इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया (इफ्फी) के इंडियन पैनोरमा सैक्शन में जो टॉप 20 फिल्में चुनी गईं, उनमें से कई दलित विषयों को लेकर थीं. यहां तक कि ओपनिंग फिल्म के तौर पर कन्नड़ की जो फिल्म ‘हदिनेलेन्तु’ चुनी गई, उसकी मूल थीम में भी एक दलित लड़की का वायरल एमएमएस था. जबकि सूरिया की तेलुगु मूवी ‘जय भीम’, प्रियनंदन की इरुला भाषा की ‘ढाबरी कुरुवी’, आर ए वेंकट की तमिल मूवी ‘कीडा’ आदि भी दलित आदिवासी विषयों पर फिल्माई गई थीं, ये सभी टॉप 20 में शामिल थीं.
पिछले कुछ सालों में लगातार दलित विषयों पर फिल्में सामने आने लगीं हैं और ये मुख्यधारा में भी हो रहा है. हो पहले भी रहा था, लेकिन कभी कभी. सत्यजीत रॉय की ‘सदगति’, शेखर कपूर की ‘बैंडिट क्वीन’, प्रकाश झा की ‘आरक्षण’, 1975 में तीन नेशनल अवॉर्ड पाने वाली ‘अंकुर’, आयुष्मान खुराना की ‘आर्टिकल 15 ए’, विकी कौशल की ‘मसान’, सुरिया की ‘जय भीम’, धनुष की ‘असुरन’, रजनीकांत की ‘काला’, दुलेकुर सलमान की ‘कम्मातिपादम’, नागराज मंजुले की ‘सैराट’ आदि इनमें प्रमुख हैं. पिछले साल हिंदी में आई एक मूवी ‘संविधान निर्माते डॉ बाबा साहेब अम्बेडकर’, कब आई कब गई पता ही नहीं चला.
बदलाव ये हुआ है कि दलित विषयों पर बनने वाली पहले फिल्में समाज सुधार तक सीमित रहती थीं, उनमें उतना आक्रोश नहीं होता, हालांकि बैंडिट क्वीन जैसी कुछ जीवनी फिल्मों के जरिए उस आक्रोश को व्यक्ति किया गया, लेकिन वो व्यक्ति की हस्ती में कहीं खो सा गया. वो किरदार बाबा साहेब से प्रेरणा लेते भी नहीं दिखाए जाते थे. अमिताभ की ‘आज का अर्जुन’ का एक दलित किरदार जो अमरीश पुरी की कोठी के फर्श पर गुस्से में गोबर से सने पैर रगड़ता है, नागराज मंजुले की उनके साथ मूवी ‘झुंड’ तक आते आते वो शहरी स्लम बस्तियों के दलितों में बदल गया, उसमें मुस्लिम भी जोड़ दिए गए. लेकिन बाबा साहेब इस फिल्म में प्रमुखता पाते हैं. बाकायदा एक गाना बाबा साहेब की जयंती पर फिल्माया गया और अमिताभ बच्चन को बाबा साहेब को नमन करते एक सीन भी डाला गया.
लेकिन चाहे नागराज मंजुले हों या फिर दक्षिण के पा रंजीत, ज्यादातर दलित विषयों के फिल्मकार हिंदूवादी ताकतों के खिलाफ जाते दिखते हैं, उनका एक अलग राजनीतिक एजेंडा दिखता है और एक बड़ा वर्ग उनकी फिल्मों से बचता है, नतीजा मुख्य धारा के विमर्श में नहीं आ पातीं. सैराट में बजरंगियों के वेलेंटाइन उत्पात का सीन, या झुंड में एक अस्थाई मंदिर को हटाते वक्त उसका समान फेंकने का सीन. इसी तरह पा रंजीत की मूवी ‘काला’ में पैर छूने को हिकारत से दिखाना, एक गुंडे को हनुमान की तरह गदा देकर एक बस्ती में आग लगवाकर लंका जलाने के सीन की तरह फिल्माना आदि काफी आलोचना का विषय बना. लेकिन ये तय है कि बाबा साहेब को फिल्म विमर्श में लाने के लिए ऐसे फिल्मकारों को श्रेय दिया जाना चाहिए.
अभी भी बाबा साहेब और उनके विचारों को लेकर कई फिल्में फ्लोर पर हैं, शूटिंग चल रही है. जिनमें प्रमुख है ‘बैटल ऑफ भीमा कोरे गांव’. माना जाता है कि महारों की एक टुकड़ी ने अंग्रेजों के लिए लड़ते हुए पेशवा खानदान के सबसे आखिरी यानी 13वें पेशवा और सबसे बदनाम चेहरे बाजीराव द्वतीय की सेना को हरा दिया था. इस पर बन रही फिल्म के हीरो हैं अर्जुन रामपाल, जिसके डायरेक्टर हैं रमेश थेटे और जिसे लिख रहे हैं विशाल विजय कुमार जो इससे पहले कोयलांचल, घायल वंश अगेन, चितकबरे, सेटेलाइट शंकर, ग्लोबल बाबा और थैंक्स मां जैसी कई चर्चित फिल्में लिख चुके हैं.
नेटफ्लिक्स ओरिजनल ने भी एक अमेरिकी फिल्म मेकर को डॉ अम्बेडकर पर 2020 में एक मूवी बनाने का जिम्मा सौंपा था, लेकिन अब ये कहा जा रहा है कि वो एक मूवी बना रहे हैं, जिसका टाइटल होगा ‘कास्ट’. इसे वह ईसाबेल विकरसन की पुलित्जर पुरस्कार विजेता किताब ‘कास्ट: द ओरिजंस ऑफ आवर डिसकंटेंट’ के आधार पर बनाएंगे, और माना जा रहा है कि अम्बेडकर की कहानी को इसी में लेंगे.